B.A B.Sc B.Com Part 2 Hindi ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर ) Question Answer 2023

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नमस्कार दोस्तों यहां पर मगध यूनिवर्सिटी बीए बीएससी बीकॉम पार्ट 2 हिंदी का लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर तथा दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर दिया हुआ है ( Magadh University BA B.Sc B.Com Part 2 Hindi short answer question answer and long answer ) 2023 जहां से आप अपने मगध यूनिवर्सिटी बीए बीएससी बीकॉम पार्ट 2 हिंदी के लिए आप यहां पर से सभी लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर तथा दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर को पढ़कर लिख सकते हैं

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अगर आप भी मगध विश्वविद्यालय बोधगया के छात्र हैं और आप इस बार बीए बीएससी बीकॉम पार्ट 2 का परीक्षा 2023 दे रहे हैं तो आपके लिए यह सभी प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण होने वाला है क्योंकि यही सब प्रश्न आपके परीक्षा में पूछे जाएंगे इसलिए इन सभी प्रश्नों पर विशेष ध्यान दें


प्रश्न 1. मैथिलीशरण गुप्त का कधि परिचय दीजिए।
अथवा, मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक परिचय देते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा, मैथिलीशरण गुप्त भक्तिकाल के मुख्य कवि हैं, इस कथन का मूल्यांकन करें।

उत्तर – आधुनिक काल में तुलसी के रूप में प्रतिष्ठित कवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी शौर्य परिवार के ऐसे सदस्य हैं जिनके प्रकाश से सम्पूर्ण हिन्दी जगत् सदा प्रकाशित रहेगा। हिन्दी साहित्य के इस मूर्धन्य कलाकार की सेवा हिन्दी साहित्य को लगभग आधी शताब्दी तक मिलती रही। द्विवेदी युग के महान हस्ती एवं खड़ी बोली हिन्दी काव्य के प्राणदायक कवि मैथिलीशरण गुप्तजी का जन्म उत्तरप्रदेश, झाँसी के चिरगाँव नामक गाँव में 1886 ई० में हुआ। गुप्तजी ने प्रतिष्ठित व्यावसायिक घराने में पैदा लेकर हिन्दी का आजीवन प्रचार-प्रसार किया ।
गुप्तजी का व्यक्तिगत जीवन काफी दुःखदायी रहा। इन्हें तीन शादियाँ करनी पड़ी, लेकिन मात्र संतान एक ही हुआ । इन तमाम सांसारिक दुःखं के बावजूद गुप्तजी की रचनाओं में पारिवारिक दुःख का एहसास पाठकों को नहीं होता है। पारिवारिक सुख-शांति, हर्षोल्लास का जैसा वर्णन गुप्तजी की रचनाओं में मिलता है वैसा वर्णन अन्य कवियों की रचना में नहीं मिलता। गुप्तजी, अपने सरल स्वभाव एवं अलौकिक प्रतिभा के बल पर हिन्दी प्रेमियों पर छा गये।
माननीय गुप्तजी की पहली कविता उस जमाने की लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में हेमन्त शीर्षक से 1905 ई० में प्रकाशित हुई। 1910 ई० में ‘रंग में भंग’ इनका पहला काव्य संग्रह के रूप में लोगों के बीच आया। इसके बाद गुप्तजी की काव्यधारा का अविरल प्रवाह जारी रहा। गुप्तजी ने मुक्तक से लेकर खंड काव्य, प्रबंध काव्य तक लिखे।
गुप्तजी की लोकप्रिय कृतियों में रंग में भंग जयद्रथ वध, भारत-भारती, किसान, पंचवटी, हिन्दू गुरुकुल, विकटभट, झंकार, साकेत, यशोधरा, मंगलघट, द्वापर, कुणाल गीत, अड़जन और विसर्जन, काया और कर्बला, विश्व वंदना, प्रदक्षिणा, पृथ्वी पुत्र, जयभारत इत्यादि लगभग चालीस पुस्तकों की रचना उनकी लेखनी से हुई। गुप्तजी की प्रायः सभी रचनाएँ हिन्दी पाठकों के बीच लोकप्रिय हुई, लेकिन गुप्तजी को प्रसिद्धि भारत-भारती से मिली। भारत-भारती के द्वारा कवि ने सम्पूर्ण भारतवर्ष के स्वर्णमय इतिहास पर पैनी नजर डालकर सुपुप्त प्रायः भारतीय को जगाया। अंग्रेजी शासन होने के कारण भारत-भारती पर हुकूमत की ओर से प्रतिबंध भी लगा, लेकिन कवि की लेखनी का प्रभाव लोगों पर पड़ चुका था।
साकेत उनकी एक चिर-स्मरणीय कृति है। तुलसीदास के बाद आधुनिक काल के कवियों में गुप्तजी ही एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनका आराध्य भगवान राम हैं। साकेत पर उन्हें मंगला पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। आगरा विश्वविद्यालय द्वारा इन्हें मानक उपाधि भी प्रदान की गई तथा गुप्तजी लंबे अरसे तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे। राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक चेतना का विकास ही गुप्तजी का मुख्य उद्देश्य रहा । राष्ट्रीय आंदोलन – काल में राष्ट्रीय भावना को उजागर कर गुप्तजी ने हम भारतवासियों को स्वतंत्रता की लड़ाई में कमर कसने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने लोगों को ललकारते हुए ओजस्वी भाषा में यों कहा-

” अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है,
न्यायार्थ अपने बन्धु की भी दण्ड देना धर्म है । “

इसी तरह की बहुत सारी कविताएँ राष्ट्रीय आंदोलन के समय क्रांतिकारियों के ओंठ पर गुनगनाते रहते थे। भारतीय बाङ्गमय में स्त्री का महत्व पुरुष के समान दिया गया है, लेकिन आज वह सम्मान स्त्रियों को नहीं मिल पा रहा है। हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में स्त्री को मात्र भोगविलास, रोग-रूप, काम-क्रीड़ा इत्यादि तक ही सीमित रखा गया। गुप्तजी ने
नारी समाज की खोयी हुई प्रतिष्ठा को हासिल करने की भरसक कोशिश की। उर्मिला, यशोधरा एवं अन्य काव्य ग्रंथों के पात्रों द्वारा गुप्तजी अपनी लक्ष्य की ओर अग्रसर दीखते हैं। नारी जीवन की सहजता एवं कोमलता का वर्णन करते हुए उन्होंने यशोधरा ग्रंथ में कहा-

अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी ।
आँचल में हैं दूध और आँखों में पानी ।। “

समाज की उपेक्षित नारियों के ऊपर ही उनकी लेखनी ज्यादा प्रभावित दिखती है। दार्शनिक विचारधारा के अनुसरा गुप्तजी वैष्णव विचारधारा में विश्वास रखते थे। लोगों ने उनकी आलोचना भी की, लेकिन काबा और कर्बला इत्यादि काव्य ग्रंथों की रचना कर उन्होंने ये साबित कर दिया कि कवि समाज, धर्म के तुक्ष बंध से परे होता है।
गुप्तजी बड़े ही सहृदय व्यक्ति थे। प्रकृति से उनका गहरा लगाव था । उनके काव्य कृतियों में प्रकृति वर्णन का विशेष महत्व है। इस तरह हम देखते हैं, गुप्तजी एक बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न इंसान बने समाज के प्रायः सभी कमियों की ओर उनका ध्यान गया है। गुप्त जी एक सच्चे इंसान के रूप में प्रतिष्ठित दीखते हैं। गुप्तजी की भाषा-शैली सरलता के लिए
लोगों को सदा याद रहेगा। चूँकि गुप्तजी खड़ी बोली के प्रारंभिक काल के कवियों में आते हैं अतः लोगों को बिल्कुल सहज भाव से हिन्दी के गूढ़ विषयों का घूँट पिलाया। उनकी भाषा-शैली की सहजता उनके द्वारा लिखी गई कविता की दो पंक्तियों से ज्ञात किया जा सकता है।

नर हो न निराश करो मन को,
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग में रहकर कुछ नाम करो ।।
इस तरह हम देखते हैं कि वे अपने जमाने के प्रतिनिधि साहित्यकार थे। गुप्तजी हिन्दी साहित्य के ऐसे प्रकाशस्तम्भ हैं, जिनकी रोशनी सदा हिन्दी प्रेमियों को मिलती रहेगी।

प्रश्न 2. मैथिलीशरण गुप्त की काव्य कला का परिचय दीजिए।
अथवा, मैथिलीशरण गुप्त के कला-पक्ष पर विचार कीजिए ।

उत्तर- भावपक्ष और कलापक्ष काव्य के महत्वपूर्ण विषय हैं। कविता अगर वनिता है तो
उसे शृंगार अर्थात् कला की आवश्यकता होगी ही। लेकिन मैथिलीशरण गुप्त की कलात्मकता पर
अक्सर सबालिया नजर रखी जाती है लेकिन इतना मानना होगा कि गुप्त जी ऐसे कलाकार हैं जिनकी कविता के सामने शृंगार के प्रसाधन थे ही नहीं, कवि को प्रसाधन (भाषादि) का निर्माण करना पड़ा। गुप्त जी का काव्य जीवन ऐसा है जिसका एक छोर खड़ी हिन्दी की तुतलाहट को छूता है तो दूसरी उसकी छायावादी कूक को ।
गुप्तजी ने अपनी काव्य-कला को स्वयं निर्माण किया है। अपने काव्य के लिए उन्होंने जिस खड़ी हिन्दी का चयन किया, उसकी स्थिति बचपनेपन की थी। उन्हें भाषा को माँजना और शब्दों को तरासना पड़ा। इसी निर्माण और मार्जन के कारण इसकी आरंभिक रचनाओं में कला का वह निखार नहीं मिलता है। लेकिन धीरे-धीरे इनकी कला में कमनीयता, कोमलता और सहज सलज्जा का रूप आने लगता है। आचार्य शुक्ल का कहना है कि, “इनमें सरल और कोमल पदावली की कमी खटकती थी। बात यह है कि वह खड़ी बोली के परिमार्जन का काल था । ”
समय के साथ-साथ इनकी कला अपनी कल्पना के लिए कोमल पदावलियाँ, बिम्बों, प्रतीकों और ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि से आभूषित होने लगती है। इनके कलागत विकास की दूसरी अव्यवस्था में भाषा की सफाई और शब्दों में तरलता व सरसता मिलती है। इनकी काव्य कला की तीसरी अवस्था छायावादी कलात्मकता का संस्पर्श करती है और तब इनका झुकाव प्रगीत मुक्तक और अभिव्यंजना के लाक्षणिक प्रयोग की ओर जाता है। इनका आभास हमें साकेत और यशोधरा में भी मिलता है। उदाहरणस्वरूप-

मरण सुन्दर बन आई रे
अपने हाथों किया विरह ने अपना सब श्रृंगार
पहना दिया उसे अपने मृदु मानस का मुक्तहार ।
इसी तरह ” रुदन की हँसना ही तो गान” आदि में छायावादी कला की झलक मिलती है। अनुप्रास, शब्द- माधुर्य, काल्पनिक उड़ान और कोमल भावना तथा मानवीकरण की कला देखिए-
‘चार चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही थी जल-थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी, अवनि से अम्बर तल में ।। ”
– गुप्तजी की काव्य- कला में गीतिमुक्तक मुक्तक से लेकर खण्ड-काव्य और प्रबंध काव्य का विस्तार मिलता है खड़ी हिन्दी को शैशवावस्था से लेकर छायावादी रूपांकनावस्था तक सेवा करनेवाले गुप्तजी को कला की समीक्षा करते समय हमें काल पर ध्यान रखना होगा, नहीं तो न्याय चूक जायेगा। गद्य लेखकों को द्विवेदीजी भाषा-शैली को तरासकर परोस रहे थे, लेकिन गुप्तजी को अपनी खिचड़ी स्वयं पकानी पड़ी। दूसरी ओर तत्सम और प्रचलित ब्रजभाषा की शब्दावलियों से कविता को मुक्त कर विशुद्ध खड़ी हिन्दी को राजमार्ग पर लाना चाहते थे। तब भी उनकी कला में शबनम पर सिन्दुरी किरणें हों या न हों, शबनमी सावन जरूर है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि गुप्तजी की काव्य- कला समालोचन की अपेक्षा करती है आलोचना की नहीं। इनकी कला पर विचार करते समय तत्कालीन परिस्थिति को देखना आवश्यक है। तब भी इनकी कला में तुतलाहट से मधुर गान तक का विकास मिलता है।

प्रश्न 3. यशोधरा काव्य ग्रंथ की कथा-वस्तु अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा, यशोधरा काव्य की कथावस्तु का उल्लेख कीजिए ।

उत्तर- यशोधरा गुप्तजी की एक प्रतिनिधि रचना है। वर्षों से उपेक्षित नारी- समाज को प्रतिष्ठित करने के लिए गुप्तजी ने ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से नारी का उत्थान एवं जागरण का काम करते हैं। यशोधरा में सिद्धार्थ की पत्नी ‘यशोधरा’ की पीड़ा एवं दुःख दिखाई देती है। यशोधरा की कथा – वस्तु काफी सरल है। इसमें पहले अस्वाभाविकता या काल्पनिक भाव नहीं दिखता। कथा का प्रारंभ बौद्ध दर्शन से होता है। कथानक में सिद्धार्थ, अंर्तद्वन्द्व सांसारिक आवागमन प्रकृति एवं अन्य लौकिक दुःखों से घबराबर गृह त्याग करते हैं। कथानक के अनुसार यह संसार क्षणभंगुर है। इस संसार में कोई भी वस्तु सार नहीं है। मानव का जन्म, मृत्यु के लिए ही होता है। इन्हीं भावनाओं से पीड़ित होकर सिद्धार्थ गृह त्याग करते हैं। सोये हुए अवस्था में राहुल एवं यशोधरा को छोड़ सिद्धार्थ मोक्ष की प्राप्ति के लिए महाभिनिष्क्रमण करते हैं। बाद में जब यशोधरा की नींद खुलती है तो उसके मन में कई संवेग एक साथ उठते हैं। कभी वह अपने पति द्वारा किए हुए इस आचरण को कोसती है तो कभी इस घटना से खुश भी होती है। भारतीय समाज में पति-पत्नी का अटूट संबंध रहता है। स्त्री और पुरुष दोनों एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। यशोधरा कहती है कि हमारे पति महान कार्य के लिए गृह त्याग किए हैं। यह मेरे लिए गौरव की बात है। वह अपने सखियों से कहती है है- ‘सखी वो मुझसे कहकर जाते । ” यशोधरा पति को गृह त्याग की बात से वेदना की याद में तपती है। लेकिन उस समय भी अपने स्त्रीत्व को आँसू आने नहीं देती है। वह कहती है कि पतिदेव ने मुझे गलत समझा । भारत की नारियों की एक अलग परम्परा रही है। रणक्षेत्र में जानेवाले रणवीर को गृहणी खुद सुसज्जित कर विदा करती थी। मैं भी अपने पति को महान कार्य के लिए खुद भेजती । यशोधरा सखियों को सम्बोधित कर कहती है कि मुझे दुःख इस बात की है कि वे मुझे बिना जगाएँ चुपके से घर छोड़ दिए।
” चोरी-चोरी गये यही बड़ा व्याघात । ‘ सिद्धार्थ के गृह त्यागने के बाद सास-ससुर, राज-पाट एवं राहुल के लालन-पालन की जबावदेही उसपर थी। इन परिस्थितियों को यशोधरा पूरे दायित्व के साथ निबाहती है। वह उसे सिद्धार्थ के द्वारा ली गई परीक्षा समझती है। गुप्तजी ने यशोधरा के माध्यम से विरहणी मानवी एवं जननी आदि स्वरूपों का वर्णन किया है।
सिद्धार्थ के गृह – त्यागने के बाद सिद्धार्थ के पिता यशोधरा से उन्हें खोजने की बात करते हैं। यशोधरा ससुर के इस प्रस्ताव को नकार देती है, जो यशोधरा के साहस भाव के प्रतीक हैं। मोक्ष प्राप्ति के बाद गौतम कपिलवस्तु पधारते हैं। सभी लोग उनसे मिलने जाते हैं, लेकिन यशोधरा बिल्कुल तटस्थ रहती है। ऐसा भाव उसके मन में मान-सम्मान भाव के कारण उठता है। गौतम इस चीज को जानते हैं। खुद यशोधरा से मिलने आते हैं। कहा जाता है कि भक्त कहीं जाता नहीं भगवान खुद आ जाते हैं। इस तरह कविवर गुप्तजी ने अपने इस कृति में यशोधरा के चरित्र को सूत्र बनाकर संसार के सारे स्त्रियों का मान बढ़ाया।

प्रश्न 4. यशोधरा का चरित्र-चित्रण कीजिए।

उत्तर – यह उचित शुद्धोधन के द्वारा की गई है। इसका अर्थ होता है कि यशोधरा के बिना गौतम को ग्रहण करना या अपनाना संभव नहीं। अब प्रश्ना उठता है कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा है ? इस संबंध में यही कहा जा सकता है कि यह उक्ति यशोधरा के पूरे व्यक्तित्व, उसके चरित्र की ओर संकेत करती है। यशोधरा का त्याग, उसकी तपस्या और धैर्य का ही परिणाम है कि सिद्धार्थ गौतम बन सके। जिन सांसारिक दायित्यों से दुःखी होकर सिद्धार्थ ने गृह-त्याग किये वे उन दायित्यों को यशोधरा अपने लिए एक चुनौती मानकर सास-ससुर, पुरजन और परितजन के प्रति अपना कर्त्तव्य निर्वाह करती है। सिद्धार्थ उस समय गृह त्याग करते हैं जिस समय यशोधरा सोयी हुई थी। नींद टूटने पर

उसे खुशी और दुःख भी होता है।
” सिद्धि हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात,
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात । “

ऐसा कहकर यशोधरा अपने मन करी बात कह डालती है। इसकी इच्छा थी कि ज्ञान और और अज्ञान, सुख और दुःख के इस महासमर के सिपाही सिद्धार्थ को अपने हाथ से सजाकर भेजती। सिद्धार्थ के व्यवहार से वह दुखित तो होती है लेकिन अपने पत्नीत्व को नहीं भूलती है वह उसकी मंगल कामना करती है –
“जायँ सिद्धि पावे वे सुख से “

जब शुद्धोधन सिद्धार्थ की जीवन की बात करते हैं तो यशोधरा उन्हें मना करती है। वह चाहती है कि उसका पति अपना साधना का चरम सीमा तक पहुँच जाय । उस साधक की तपस्या में सांसारिक अड़चने नहीं आने पाये। उसकी प्रबल इच्छा है कि उसका पति संसार में महती कार्य करके अपना मान-सम्मान बढ़ावे । अतः वह चाहती है कि जबतक उन्हें सिद्धि नहीं मिल जाय तबतक यशोधरा की याद भी नहीं आये। शुद्धोधन यशोधरा की इस भावना से प्रभावित होते हैं। शुद्धोधन यशोधरा के जननी के रूप को देख चुके हैं। यशोधरा अपने राहुल के लिए माँ और पिता दोनों का रूप धारण करती है। वह अपने अदम्य उत्साह और असीम धैर्य से अपने राहुल का लालन-पालन करती है। अतः वह मातृत्व के कर्तव्य निर्वाह में अपनी पूर्णता का परिचय देती है। जब सिद्धार्थ सिद्धि प्राप्त कर गौतम बन जाते हैं तो हर जंगह उनका स्वागत होता है। कपिलवस्तु उनके स्वागतार्थ उत्सुक होता है। गौतम आते भी हैं। सारी नगरी उमड़ पड़ती है। लेकिन यशोधरा, यहीं बैठी रह जाती है जहाँ उसे छोड़कर गये थे। यह उसका मान है। शुद्धोधन इस. मान और उसके पूरे चरित्र को समझते हैं। तभी तो कहते हैं-

‘बेटी, उठ मैं तुझे छोड़ नहीं जाऊँगा ‘
तेरे अर्थ ही तो मुझे उसकी उपेक्षा है,
गोपा बिन गौतम भी ग्राह्य नहीं मुझको ।
जब सिद्धार्थ को अपनी भूल का पता चलता है तो वे स्वयं उसके समीप आते हैं। अतः यह उक्ति सर्वाशतः सत्य है। वह तो यशोधरा का त्याग, धैर्य और साहस है जिससे सिद्धार्थ अपनी साधना में सफल हुए। उसमें जननी और मानिनी के साथ-साथ एक पूर्ण नारी का व्यक्तित्व है।

प्रश्न 5. गोपा बिना गौतम भी ग्राह्य नहीं मुझको शुद्धोधन के इस कथन का विवेचन करें।
अथवा, यशोधरा काव्य की नायिका का चरित्र-चित्रण कीजिए ।
अथवा, यशोधरा के आलोक में जननी यशोधरा का चरित्र-चित्रण कीजिए ।

उत्तर – लोकप्रिय काव्य ग्रंथ ‘यशोधरा’ की नायिका यशोधरा है। काव्य ग्रंथ के नामकरण से लेकर संपूर्ण काव्य ग्रंथ के मूलभाव यशोधरा के ही चरित्र को उजागर करता है। गुप्तजी यशोधरा की चारित्रिक गुणों को उजागर करना ही अपना उद्देश्य मानते हैं क्योंकि यशोधरा काव्य ग्रंथ में दो धार्मिक विचारों पर प्रकाश डाला गया है। सिद्धार्थ बौद्ध विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं कवि यशोधरा के द्वारा अपने वैष्णव भावना का प्रचार करने के लिए उतारू दिखते हैं। गुप्तजी ने इतिहास प्रसिद्ध नारियों के चरित्र को उजागर करने के क्रम में ही यशोधरा, उर्मिला आदि ग्रंथों की रचना की। यशोधरा में गुप्तजी ने त्याग, धैर्य और कर्मठता पर प्रकाश डालते हुए उनके महान व्यक्तित्व पर शुद्धोधन के द्वारा ये पंक्ति कहवाया “गोपा बिना गौतम ग्राहा नहीं मुझको” इसका अर्थ होता है कि यशोधरा के बिना गौतम को ग्रहण करना कतई संभव नहीं है। यशोधरा के त्याग, तपस्या और धैर्य के बल पर पहली सिद्धार्थ भगवान गौतम के रूप में प्रसिद्धि पा सके । गृह त्यागने के उपरांत यशोधरा ने उन तमाम दायित्वों को निभाया जो एक साधारण स्त्री अपने पति की अनुपस्थिति में निभाती है । अर्थात् यशोधरा अपने कर्तव्य में कभी भी पीछे नहीं दिखाती। सोयी हुई अवस्था में यशोधरा को छोड़कर गृह त्याग करते हैं। नींद खुलने पर यशोधरा को खुशी एवं गम दोनों भाव समान रूप से सताता है। खुशी इसलिए होती है कि उसके पति महान कार्य के लिए गृह त्याग किए हैं लेकिन दुःख और ग्लानि इसलिए होती है कि बिना बताए गृह त्याग करते हैं-
” सिद्धि हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात,
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात ।। ”
भारतीय परम्परा के अनुसार स्त्री को अर्द्धांगिनी का दर्जा दिया गया है। अर्थात् स्त्री पुरुष के सभी तरह के कार्यों में समान रूप से हाथ बँटाती है। यशोधरा कहती है कि प्रिय आपको ज्ञान, अज्ञान, सुख और दुःख, बाल-वृद्ध इत्यादि महासमर के लिए आपको खुद तैयार करके भेजती । लेकिन आप ने मुझे उस काबिल नहीं समझा, इससे हमारा अपमान हुआ है। लेकिन यशोधरा अपने पति को भूलती नहीं। भारतीय परम्परा के अनुसार उनका मंगल कामना करती है। ये कहती हैं-
“जायें सिद्धि पावें वे सुख से । ” जब शुद्धोधन राजकुमार पुत्र सिद्धार्थ को खोजवाना चाहते हैं तो यशोधरा सरल स्वभाव से उन्हें मना करती है। वह चाहती है कि उसके पति जिस साधना के लिए घर का त्याग किए हैं उसे प्राप्त करें उनकी साधना में सांसारिक अड़चनें न आने पायें। उनकी प्रयत्न इच्छा है कि उनका पति संसार में अपना मान-सम्मान एवं अपना कृति बढ़ायें। जबतक उन्हें मोक्ष की प्राप्ति न हो जाय तब तक उनका मेरी याद भी न आए। उपरोक्त भाव यशोधरा के सहज भारतीय स्त्री का चित्रण प्रस्तुत करता है।
यशोधरा को गुप्तजी ने एक सफल जननी के रूप में भी प्रस्तुत किया है। यशोधरा राहुल के लिए माँ और पिता दोनों रूप धारण करती है। अद्यम उत्साह और अभूतपूर्व धैर्य के साथ राहुल का लालन-पालन करती है। मातृत्व के तमाम सुखों को यशोधरा राहुल को उपलब्ध कराती है। बाल सुलभ प्रश्नों का उत्तर बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से देते दिखती है। गुप्तजी ने माँ यशोधरा के रूप में एक आदर्श भारतीय जननी का रूप प्रस्तुत किया है।
सिद्धि प्राप्ति के उपरांत जब सिद्धार्थ गौतम के रूप में कपिलवस्तु वापस आते हैं, तो चारों ओर खुशियाँ छा जाती है। सभी लोग गौतम से मिलने जाते हैं, लेकिन यशोधरा वहीं बैठी रह जाती है, जहाँ छोड़कर सिद्धार्थ गये थे। घटना इस बात का प्रमाण है कि यशोधरा गौतम से सम्मान चाहती है, उपेक्षा नहीं। सिद्धार्थ को अपनी भूल का पता चलता है और स्वयं यशोधरा के पास आते हैं। अतः यह युक्ति सत्य है कि यशोधरा के त्याग, धैर्य और साहस के बल पर ही सिद्धार्थ अपनी साधना में सफल हुए।

प्रश्न 6. वियोगिनी अथवा विरहिणी यशोधरा का चरित्र चित्रण कीजिए । अथवा, एक विरहिणी अथवा वियोगिनी के रूप में यशोधरा के चारित्रिक स्वरूप का परिचय दीजिए ।

उत्तर – गुप्तजी रचित ‘यशोधरा’ काव्य विरहिणी यशोधरा अश्रु-सिक्त विरह-काव्य है। रचना का तथ्य और कथ्य वियोगिनी यशोधरा की व्यथा – कथा की करुण गाथा का ही पर्याय है। वस्तुतः इस रचना में गुप्तजी ने विरहिणी यशोधरा की करुण पीड़ा के माध्यम से सहज उपेक्षित भारतीय नारी की वेदना को साकार किया है। गुप्तजी की यह यशोधरा अपने एक रूप में नारी के विभिन्न रूपों को रूपायित करती है – कुलवधू, पत्नी, कामिनी, जननी, अनुरागिनी और मानिन के रूप में। परंतु इन विभिन्न रूपों में उसका वियोगिनी अथवा विरहिणी रूप ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। पं. गिरिजा दत्त शुक्ल के शब्दों में- ” विरहिणी के रूप में यशोधरा का चित्र प्रस्तुत करके गुप्तजी ने हिन्दी – साहित्य को एक अमूल्य निधि प्रदान की है । ”
मूल रूप में विरहिणी यशोधरा गौतम की अनुरागिनी है। उसके हृदय में अपने पति के लिए अनुराग का पारावार मचलता रहता है। वह पूर्ण रूप से उनके प्रेम में अनुरक्त और आसक्त हैं, लेकिन उसके बाद भी गौतम उसे छोड़कर चुपके से चले जाते हैं। उसे इस बात की गहरी पीड़ा है कि गौतम ने उसे मुक्ति पथ की बाधा नारी मानकर उसकी गहरी उपेक्षा की है। उन्होंने उसके हृदय में संचित प्रेम के स्वरूप को पहचाना नहीं, उन्होंने नारी – हृदय की कोमलता और सुकुमारता की धार्मिक अनुभूतियों के स्पन्दन को सुनकर भी नहीं सुना । इस रूप में कपिलवस्तु की इस नव राजवधू को पति के वियोग की पीड़ा के साथ-साथ नारी जाति के अपमान की पीड़ा भी व्यथित कर रही है। उसे इस बात का गहरा दुःख है कि मौन
प्रयाण के द्वारा गौतम ने उसका जो अपमान किया है उससे सम्पूर्ण नारी जाति का अपमान लक्षित होता है-
“सिद्ध हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात ।
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात ।
इसीलिए वह अपनी सखी से अपने मनोव्यथा इस रूप में वर्णन करती हुई कहती है कि यदि वे उससे कहकर या उसे सूचित करके प्रयाण करते, तो वह चिन्ता की बात नहीं थी । भारतीय नारी तो लोक-कल्याण के लिए बराबर ही अपने पति को स्वयं सजाकर रणभूमि में भेजती रही है-
‘सखि ! वे मुझसे कहकर जाते ।
कह तो, क्या मुझसे वे अपनी पथ- वाधा ही पाते ?
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में प्रियतम की प्राणों के पग में
हमीं भेज देती हैं रण में
क्षात्र धर्म के नाते ।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते ।

लेकिन अपने पति के प्रति वह शिकायत पालकर भी वह उनकी सहज अनुसंगिनी बनी रहती है और उनके इस महाप्रयाण की सफलता की मांगलिक कामना करती है। यह गौतम की भाँति ही राजप्रासाद के उस रजत- प्रांगन में वैराग्य का वरण करती है। अपने काले को कर्तरी से काटकर संन्यास का बाना पहन लेती है और अपने पति के वैराग्य-पथ की उज्जवलता तथा शुभ्रता प्रति अपना विश्वास प्रकट करती है-
“चार चूड़ियाँ ही हाथों में पड़ी रहें चिरकाला मेरी मलिन गुदड़ी में भी है राहुल-सा लाल। बस, सिन्दूर-बिन्दु से मेरा जगा रहे यह भाल।
यह जलता अंगार जला दे उनका सब जंजाला ” वियोगिनी यशोधरा का यह पति प्रेम सचमुच बड़ी ही विलक्षण हैं। यशोधरा मानती है कि पति के अपूर्ण जीवन को पूर्ण और सार्थक बनाना ही नारी का मूल कर्तव्य तथा नारी धर्म का उत्कर्ष है। अपने पति की चरम साधना में अपनी साधना को विलीन और एकाकार कर देना ही नारी – धर्म का इष्ट है। पर उसे गहरी वेदना तो इस बात की है कि उसके पति ने उसे ऐसा करने का अवसर ही नहीं दिया। उन्होंने इसके हृदय में संचित अनुराग को रोग में बदल दिया। यह बात उसे क्षण-क्षण सालती रहती हैं-
” मिला न हा ! इतना भी योग, मैं हँस लेती तुझे वियोग, देती उन्हें विदा मैं गाकर भार झेलती गौरव पाकर
यह विश्वास न उठता होकर
बनता मेरा राग न रोग, मिला न हो ! इतना भी योग । ”
वियोगिनी यशोधरा का यह वियोग, वियोगिनी उर्मिला के वियोग से भी अधिक पीड़क है। उर्मिला के विरह – वियोग की तो एक निश्चित अवधि थी, लेकिन यशोधरा का वियोग एक सीमाहीन वियोग की दाहक पीड़ा का प्रतीक है। उसका वियोग तो एक प्रकार से चिरवियोग था । उसने अपने पति को सदा के लिए खो दिया। उसे जो जान पड़ता है कि उसका जीवन अब सदा रोने के लिए ही बना है उस अबला के नयन-नीर अब अविरल धारा के रूप में ही प्रवाहमान होते रहेंगे। अब वियोग की पीड़ा ही उसके जीवन की निधि बन जाएगी। इसी कारण वह वियोग की पीड़ा की दीपशिखा में तिल-तिल कर जलती रहती है, फिर भी वह मरण पथ का वरण नहीं करती। वह वियोग की स्थिति में भी कुलवधू और राहुल – जननी के रूप में अपने कर्तव्य-बोध से परिचित रहकर तदुनरूप आचरण करती रहती है। अपने वियोग के विराट मंच पर ही वह जननी, मानिनी और अनुरागिनी के अपने वैविध्यपूर्ण रूप का परिचय देती रहती है। डॉ. वासुदेव नन्दन प्रसाद ने कहा है- ” यशोधरा का यह विरह अंतद्वन्द्वों से ओत-प्रोत है । “

प्रश्न 7. ‘यशोधरा’ में वर्णित नारी – भावना पर प्रकाश डालिए।
अथवा, ‘यशोधरा’ का कवि नारी के प्रति सदस्य है। स्पष्ट करें।

उत्तर- आदिकाल से मध्यकाल तक हिन्दी साहित्य में नारी उपेक्षित रहीं। रीतिकाल तो नारी के लिए जिस्म और जुल्म में बँधा रहा। लेकिन आधुनिक काल में नारी के मर्म की पहचान की, उसकी पीड़ा वेदना और कसक के भीतर पैठकर नारीत्व को स्पष्ट किया। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने प्रसिद्ध काव्य ‘यशोधरा’ में नारी के माँ पुत्री और पत्नी आदि रूपों की पहचान की है। इस काव्य में नारी के पत्नी और जननी रूप पर विशेष बल दिया गया है। नारी पत्नी बनकर पति की सेवा करती है। लेकिन अपने पति की मनोभावना की अनुगामिनी होकर वह अविश्वसनीय बनी रहती है। उसकी गोद में भविष्य पलता है लेकिन जीवन
दुःखों के सागर में डूबा रहता है। तभी तो कहा है-

अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में हैं दूध और आँखों में पानी । ”

गुप्तजी नारी को ‘अर्धशुभाशुभ’ मानते हैं। उन्होंने भक्तिकालीन कवियों की तरह इसे ‘माया’ करार नहीं दिया है। नारी को मुक्ति मार्ग की बाधा मानने वाले के समक्ष यशोधरा तर्क देती है कि नारी से मुक्ति सम्भव है, जब ‘जन्म-मूल मातृत्व’ को समाप्त कर दिया जाय अर्थात् नारी पुरुष की जन्मदात्री है। जो जन्मदात्री है वह उसके विकास कार्य को बाधा कैसे बन सकती है ? गुप्तजी नारी को रीतिकालीन नायिका नहीं मानते हैं। प्रिय – विरह में आग बनकर जलना और दिखावटी आँसू बहाना इनकी नारी नहीं जानती है। वह तो स्पष्ट कहता है-
“आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेरी बारी” अर्थात् जब पुरुष पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांसारिक दायित्व के दुःख से घबड़ा कर पलायन करता है, तो नारी इस दायित्व को एक चुनौती मान लेती है । यशोधरा सारे दायित्वों को साहस और धैर्य के साथ निवाहती है। यही है गुप्तजी की नारी – भावना, जिसमें नारी का तेज और तपस्या की झलक मिलती है। गुप्तजी इतिहास को साक्षी रखकर कहते हैं कि नारी में अदम्य उत्साह, तेज और साहस है। वह देश रक्षा में पति को अपने ही हाथों से सजाकर रणांगन में भेजती आयी है। उसके इस त्याग की कहानी कभी धूमिल नहीं होगी –
है।
“स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम के प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती है रण में, क्षात्र धर्म के नाते । ”
गुप्तजी के नारी को मात्र भोग की वस्तु नहीं माना है। नारी तो त्याग और तपस्या की मूर्ति। वह पत्नी बनकर सिद्धार्थ की सेवा करती है, विरहिणी होकर भी अपने दायित्वों का निर्वाह करती है, जननी होकर राहुल का पालन करती है । वह राहुल की माँ और पिता दोनों हो सकती है। जब गुप्तजी नारी के विरहिणी रूप की बात करते हैं तो उसके अन्दर के नारीत्व को भूलते नहीं। पुरुष भले ही उसे सुषुप्तावस्था में छोड़कर चला जाय लेकिन नारी अपने इस अपमान से दुखित होकर भी उसकी मंगल कामना करती रहेगी- “जायँ सिद्धि पावे वे सुख से।” इस प्रकार ‘यशोधरा’ काव्य में गुप्तजी ने नारी के अंदर पलते पत्नीत्व और मातृत्व की पहचान की है। उसकी ममता, प्रेम, सेवा, धैर्य और त्याग की कोई सीमा नहीं है। वह माया नहीं, सृष्टि की मूलात्मा है। तब भी, उसकी आँखें पनीली है – ” आँचल में दूध और आँखों में पानी ” है।

प्रश्न 8. गौतम का चरित्र चित्रण कीजिए ।
अथव, गौतम के शील-गुणों को अपने शब्दों में लिखिए ।

उत्तर – बौद्धधर्म के प्रवर्तक भगवान कहे जाने वाले गौतम बुद्ध के चरित्र चित्रण में वैष्णव कवि मैथिलीशरण गुप्त ने वह उदारता नहीं दिखलायी है जो यशोधरा के प्रति है। कहा जाना चाहिए कि गुप्त जी का सारी सहानुभूति यशोधरा के प्रति है । गौतम को लेकर तो उन्होंने बौद्ध धर्म का खंडन ही किया है, लेकिन चाहे जो हो, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से गौतम पूरे काव्य में बने रहते हैं। काव्य में गौतम से हमारा परिचय कवि ने उस समय करवाया है जिस समय वे सांसारिकता से अपने आप को विलग कर रहे थे। वे एक तटस्थ द्रष्टा होकर संसार को देखते हैं और पाते हैं कि यह संसार सारहीन है। इसमें नित्यता का अभाव है। इसकी क्षणभंगुरता को आदमी सत्य मानकर अपने-आप को भुलाये रखता है। लेकिन वह कुछ नहीं पाता है और अन्त में उसकी सत्ता समाप्त हो जाती है। संसार की निस्सारता, जरा-मरण का भय और आवागमन के दुख को देखकर उनका द्वन्द्व बढ़ता है और यही अन्तर्द्वन्द्व, महाभिनिष्क्रमण की ओर उन्हें प्रेरित करता है। उन्हें लगता है कि संसार का सारा तत्त्व आखिर कहाँ चला जाता है-

प्रश्न 9. राहुल का चरित्र चित्रण कीजिए ।
अथवा, यशोधरा की कथावस्तु में राहुल का स्थान निर्धारित कीजिए।

उत्तर- ‘यशोधरा’ काव्य में मैथिलीशरण गुप्त ने राहुल के माध्यम से वात्सल्य का मोहक स्वरूप प्रस्तुत किया है। यशोधरा के विरहिणी – जीवन में राहुल प्रिय की थाती है। अगर राहुल नहीं होता तो यशोधरा का जीवन-सूना हो जाता । जिस तरह से सिद्धार्थ ने उसका त्याग किया था उससे पछाड़ खाकर यशोधरा परेशान होती है लेकिन राहुल उसकी गोद में पति की अमानत है, थाती है। कहा जाता है कि प्रिय की थाती में प्रियतमा को अपने प्रिय की झलक मिलती है। इस दृष्टि से राहुल यशोधरा और गौतम के बीच की कड़ी है।
राहुल का चरित्र – वात्सल्य प्रस्तुतीकरण मात्र के लिए नहीं आया है। वह तो गोपा जीवन की ऐसी उपलब्धि है जिससे उसका जीवन मातृत्व की पूर्णता पाता है। राहुल का बाल – स्वभाव अत्यंत ही सरल एवं स्वाभाविक है। आरंभ में बाल- चापल्य और बाल – प्रवृत्तियाँ उसकी देखी जाती है। वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे अपनी माँ से पिता के संबंध में प्रश्न करता है यशोधरा राहुल से क्या कहे? उसके प्रश्न के सारे उत्तर अपने पति को देना चाहती है। दुःख, पीड़ा और मुक्ति की बात अपने पति से कहना चाहती है। यहाँ स्पष्ट होता है कि राहुल के माध्यम से यशोधरा अपने पति को याद करती है। राहुल की सारी बातें उसे सिद्धार्थ की स्मृति को ताजा करती रहती हैं। इससे गोपा अपने गौतम से जुड़ी रहती है। राहुल में जहाँ बाल सुलभ पलता है वहीं गुढ़ार्थ जानने की जिज्ञासा भी। वह अपनी माँ से संसार, साधन और मुक्ति की बात जानना चाहता है। वह कहता है कि माँ तुम अपने-आप को खोकर उन्हें (सिद्धार्थ) खोज रही है और वे अमर हैं। तुम गाती हो मेरे लिए और रोती हो उनके लिए-
” गाती है मेरे लिए रोती उनके अर्थ
हम दोनों के बीच तू पागल – सी असमर्थ । ”
राहुल गोपी के जीवन की वह छवि है जिनमें गौतम का झलक है। उधर राहुल गोपा और गौतम के बीच कड़ी क्यों न हो। जय-जय यशोधरा सांसारिक दायित्वों से थककर सुसताती है तब-तब राहुल अपने पिता की चर्चा कर उसे गौतम से जोड़ देती है । माँ की छत्र-छाया में पला सिद्धार्थ मन, वचन और कर्म से उत्साही तथा धैर्यवान बनता है। जब सिद्धि प्राप्त कर गौतम लौटते हैं तो उन्हें मानिनी यशोधरा के पास जाना पड़ता है। वहाँ यशोधरा खाली हाथ नहीं लौटाती हैं। वह अपने जीवन – सुमन राहुल को उन्हें समर्पित कर देती है । अब हम यह मानने लगते हैं कि अब तक राहुल गोपा को गौतम से जोड़े हुए था। इसके बाद वह गौतम के साथ रहकर गौतम को गोपा से जोड़ते रहेगा। अतः हम कह सकते हैं कि ‘यशोधरा’ काव्य में राहुल का वह स्थान है जिसके अभाव में काव्य की आत्मा निष्प्राण हो जाती । उसके चरित्र में बालक की चपलता और ज्ञानी का चिंतन है। वह एक आदर्श पुत्र है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि राहुल गोपा और गौतम के बीच की कड़ी है। मैथिलीशरण गुप्त ने राहुल के चरित्रांकन में आशातीत सफलता पायी है।

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