Class 12 Home science ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर ) 2022 ( 15 Marks ) | PART – 2

B.S.E.B इंटर बोर्ड परीक्षा 2022 के लिए यहां पर गृह विज्ञान का दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर दिया गया है। जो आपके इंटर बोर्ड परीक्षा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। तथा दोस्तों Bihar Board Class 12 Home Science Long Answer Question Answer 2022 भी दिया गया है। यह सभी प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसलिए शुरू से अंत तक जरूर देखें।


( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर ) 2022 ( 15 Marks ) | PART – 2

Q10. आहार आयोजन क्या है? आहार आयोजन को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।

उत्तर ⇒ आहार आयोजन का अर्थ आहार की ऐसी योजना बनाने से है जिससे सभी पोषक “ तत्त्व उचित तथा संतुलित मात्रा में प्राप्त हो सके। आहार का आयोजन इस प्रकार से करना चाहिए कि आहार लेने वाले व्यक्ति के लिए
यह पौष्टिक, सुरक्षित, संतुलित हो तथा उसके सामार्थ्य में हो। आहार आयोजन को प्रभावित करने वाले कारक निम्न हैं

(i) परिवार के सदस्यों की संख्या परिवार के सदस्यों की संख्या आहार आयोजन को प्रभावित करती हैं। गृहिणी को आहार आयोजन करते समय घर के सदस्यों की संख्या के अनुसार विभिन्न भोज्य पदार्थों की मात्रा का अनुमान लगाया जाये। कम सदस्यों में कम तथा अधिक सदस्यों में अधिक भोज्य पदार्थों की आवश्यकता होती है।

(ii) आय भिन्न-भिन्न आयु जैसे-बच्चे, बुढ़े, किशोर तथा प्रौढ़ के लिए पोषण संबंधी माँग भी भिन्न-भिन्न होती है। बाल्यावस्था में अधिक ऊर्जा वाले भोज्य पदार्थ तथा वृद्धावस्था में पाचन शक्ति कमजोर होने से ऊर्जा की माँग कम हो जाती है।

(iii) लिंग आहार आयोजन में स्त्री तथा पुरुष की पोषण आवश्यकताओं में अन्तर होता है। एक आयु के पुरुष और महिला के एक ही व्यवसाय में होने पर भी उनकी पोषण आवश्यकताएँ भिन्न होती हैं। पुरुष की पोषण संबंधी माँग स्त्री की अपेक्षा अधिक होती है।

(iv) शारीरिक आकार शारीरिक आकार के अनुसार पोषण माँग भी भिन्न-भिन्न होती है। लम्बे चौड़े व्यक्तियों को दुबले-पतले व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती है रुचि परिवार में सभी सदस्यों की रुचियों में विभिन्नता होती है। आहार आयोजन करते समय सभी सदस्यों की रुचियों को ध्यान में रखना चाहिए। बच्चों को दूध-पसंद नहीं हो तो उसकी जगह हॉर्लिक्स, खीर, कस्टर्ड आदि दिया जा सकता है।

(vi) धर्म-कुछ धर्मों में मांस, मछली, अण्डा, प्याज तथा लहसन आदि खाना वर्जित है। इस बात का आहार आयोजन करते समय ध्यान रखना चाहिए।

(vii) व्यवसाय प्रत्येक व्यक्ति का व्यवसाय अलग-अलग होता है। कोई व्यक्ति शारीरिक परिश्रम अधिक करता है तो कोई मानसिक परिश्रम अधिक करता है। शारीरिक श्रम करने वाले को कार्बोज तथा वसा देना चाहिए इसके विपरीत मानसिक श्रम करने वाले को प्रोटीन, खनिज तत्त्व तथा विटामिन देना चाहिए।

(viii) जलवायु तथा मौसम जलवायु तथा मौसम भी आहार आयोजन को प्रभावित करता है। गर्मी में ठण्डे पेय पदार्थ तथा सर्दियों में गर्म चाय, कॉफी तथा सूप आदि पदार्थ दिये जाते हैं। ठण्डी जलवायु में वसा वाले भोज्य पदार्थ शामिल किये जाते हैं।

(x) आदत आहार आयोजन आदतों को प्रभावित करता है। किसी को चाय अधिक पीने की आदत है, किसी को दूध पीना अच्छा लगता है, किसी को हरी सब्जी सलाद पसंद है। बच्चों को मिठाई, चाकलेट, आइसक्रीम, चाट, पकौड़ा पसंद होती है। आहार आयोजन में इसका भी ध्यान रखा जाता है।

(x) विशेष अवस्था गर्भावस्था तथा धात्री अवस्था में पोषक तत्त्वों की मांग बढ़ जाती है। रोगावस्था में क्रियाशीलता कम होने के कारण ऊर्जा की माँग कम हो जाती है। मधुमेह में कार्बोज हानिकारक होता है। आहार में इसे शामिल नहीं करना चाहिए।


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Q11. भोजन का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है?

उत्तर ⇒ भोजन का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है जो इस प्रकार है

A. भोजन का शारीरिक महत्त्व

(i) भोजन शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है शरीर में ऊष्मा बनाए रखने, शारीरिक कार्य करने के लिए मांसपेशियों की सक्रियता प्रदान करने तथा शरीर के विभिन्न अंगों को क्रियाशील बनाये रखने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
(ii) भोजन शारीरिक वृद्धि एवं विकास करता है—जब शिशु जन्म लेता है तो वह 2 किलोग्राम से 3.5 किलोग्राम तथा लंबाई 40-50 सेमी० होती है। युवावस्था तक आते-आते 50-70 किग्रा० तथा 5-6 फीट की लंबाई तक पहुँच जाता है।
(iii) भोजन शरीर के रोगों से रक्षा प्रदान करता है भोजन में सभी पोषक तत्त्व
होते हैं जो शरीर के लिए सुरक्षात्मक कार्य करते हैं। ये पोषक तत्त्व सभी प्रकार के विटामिनों तथा खनिज लवण में होते हैं। शरीर को रोगों से संघर्ष करने की शक्ति इन्हीं पोषक तत्त्वों के भोजन में रहने से प्राप्त होती है।

(iv) भोजन शारीरिक क्रियाओं का संचालन, नियंत्रण एवं नियमन करता है शरीर में रक्त का थक्का बनना, शारीरिक तापक्रम पर नियंत्रण, जल संतुलन पर नियंत्रण, श्वसन गति का नियमन, हृदय की धड़कन, उत्सर्जन आदि
क्रियाओं का भोजन द्वारा नियमन एवं नियंत्रण होता है।

(B) सामाजिक महत्त्व

(i) भोजन आर्थिक स्तर का प्रतीक है– उच्च आर्थिक स्तर के लोग महँगे फल, मेवे, बड़े होटलों में खाना खाते हैं। मध्यमवर्गीय लोग मौसम के फल, सब्जियों का प्रयोग करते हैं। जन्मदिन, विवाह, त्योहार पर भोजन का आयोजन कर अपनी आर्थिक स्तर को दिखाते हैं। भोजन आतिथ्य का प्रतीक है—भोजन द्वारा अतिथि सत्कार भी किया जाता है। विशेष तीज त्योहार पर विशिष्ट एवं स्वादिष्ट भोजन बनाया जाता है और भोज का आयोजन कर अपनी खुशी प्रकट करते हैं।

(C) भोजन का मनोवैज्ञानिक महत्त्व

(i) भोजन द्वारा संवेगों को प्रकट करना ,भोजन द्वारा संवेगों को प्रकट किया जाना है। जैसे—दुःखी मन से कम भोजन खाया जाता है तथा मन खुश होने पर अधिक भोजन खाया जाता है।
(ii) सुरक्षा की भावना के रूप में भोजन सुरक्षा की भावना का प्रतीक है। घर का बना भोजन न केवल पौष्टिक और स्वच्छ होता है बल्कि एक सुरक्षा की भावना प्रदान करता है।
(iii) भोजन का प्रयोग बल के रूप में कई बार लोग विद्रोह दर्शाने के लिए भूख हड़ताल करते हैं। यदि प्रशंसनीय कार्य करता है तो उसे इनाम के रूप में उसका प्रिय भोजन बनाकर दिया जाता है।


Q12. भोजन पकाने, परोसने और खाने में किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए?

उत्तर ⇒ भोजन पकाने के नियम भोजन पकाने के निम्नलिखित चार नियम हैं।

(i) जल द्वारा-पाक क्रिया आर्द्रता के माध्यम से उबालकर की जाती है।
(ii) वाष्य द्वारा स्वास्थ्य की दृष्टि से यह उत्तम है क्योंकि खाद्य पदार्थ जल की वाष्प द्वारा पकाया जाता है।
(iii) चिकनाई द्वारा उसके लिए तेल, घी आदि का प्रयोग किया जाता है।

इसे निम्नलिखित विधि द्वारा पकाए जाते हैं

(a) तलने की अथली विधि (b) तलने की गहरी विधि तथा (c) तलने की शुष्क विधि। तलने की अथली विधि द्वारा चीला, डोसा और मछली पकाये जाते हैं। तलने की गहरी विधि द्वारा पूड़ी, कचौड़ी, समोसे पकाये जाते
हैं। तलने की शुष्क विधि द्वारा सॉसेज तथा बेलन बनाए जाते हैं।

(iv) वायु द्वारा वायु का प्रयोग भुंजने तथा सेकने में किया जाता है। सब्जियों को पकाते समय धीमी आँच का प्रयोग करना चाहिए। ढंककर भोज्य पदार्थों को पकाने से, वाष्प के दबाव से शीघ्र पकते हैं तथा उसकी सुगंध
भी बनी रहती है। दूध को उबलनांक पर लाकर आँच धीमी कर देना चाहिए और उसे कुछ देर उबलने देना चाहिए। भोजन परोसने तथा खाने के नियम इसके चारं नियम हैं

(A) विशुद्ध भारतीय शैली इसमें फर्श पर आसनी, दरी या लकड़ी के पटरे पर बैठकर भोजन किया जाता है।
(B) भारतीय — विदेशी मिली-जुली शैली इस शैली में मेज और कुर्सी पर बैठकर भोजन ग्रहण किया जाता है।
(C) पाश्चात्य शैली—इसमें मेज पर रखे काँटे, चम्मच तथा छुरी के प्रयोग से भोजन किया जाता है। भोजन परोसने का कार्य वेटर करते हैं।
(D) स्वाहार (बुफे) शैली स्थान की कमी तथा अतिथि के अधिक होने की स्थिति में इसका प्रयोग किया जाता है। इसमें एक बड़ी मेज पर खाने की सभी सामग्रियों को डोंगों में रख दिया जाता है। इसमें स्वयं ही खाना निकालकर लोग खड़े होकर या घुमकर खाते हैं। .


Q13. स्तनपान क्या है? यह शिशु के लिए आवश्यक क्यों है?

उत्तर ⇒ संसार में आने के बाद शिशु के पोषण के लिए आहार के रूप में माँ का दूध सर्वोत्तम माना जाता है। जन्म के बाद दूध ही शिशु का आहार होता है। शिश के इस आहार का प्रबंध माता के स्तन द्वारा होता है। यह प्राकृतिक आहार है जो शिशु के लिए अमृत समान होता है। माता द्वारा अपने शिशु को स्तनों से दूध पिलाने की क्रिया स्तनपान कहलाती है।
स्तनपान शिशु को कई कारणों से आवश्यक है

(i) माता के स्तनों से निकला पहला पीला गाढ़ा दूध जिसे कोलेस्ट्रम कहते हैं, शिशुओं को रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है।
(ii) शिशु के लिए सर्वाधिक पौष्टिक और संतुलित आहार है। .
(iii) शिशु के लिए सर्वाधिक पाचन तंत्र के अनुकूल है।
(iv) दूषणरहित है।
(v) उचित तापक्रम पर उपलब्ध है।
(vi) मिलावट रहित है। सुरक्षित और आसानी से उपलब्ध है।
(vii) आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद है।
(ix) माँ एवं बच्चे के सुदृढ़ भावनात्मक सम्बंध को विकसित करने में सहायक है।
(x) दूध को बनाना नहीं पड़ा या गर्म ठंडा नहीं करना पड़ता, यह स्वतः ही माँ के स्तनों
से प्राप्त हो जाता है। जिससे समय की बचत होती है।


Q14. बच्चों को क्रेच में रखने से क्या लाभ है?

उत्तर ⇒ बच्चे को उचित देखभाल जिस संस्थान में की जाती है वह क्रेच (शिशु सदन) कहलाती है। शिशु सदन द्वारा उपलब्ध सुविधाएँ निम्नलिखित हैं-

(i) यह बच्चे को निश्चित समय तथा तापमान पर दूध तथा आहार प्रदान करता है।
(ii) इसमें बच्चों को खिलौने प्रदान किये जाते हैं जो बच्चों को प्रसन्न वातावरण में – सामाजिक बनाने में सहायता करते हैं।
(ii) यह बच्चे को साफ और सुरक्षित, वातावरण प्रदान करता है।
(iv) यह बच्चों को औषधि तथा प्राथमिक चिकित्सा प्रदान करता है।
(v) छोटे बच्चे को इसके स्टाफ द्वारा खाना खिलाया जाता है।
(vi) यह प्रत्येक छोटे बच्चे को चारपाई प्रदान करता है।
(vii) इसमें छोटे बच्चे खिलौने होने से खेलने का आनंद उठाते हैं।
(vii) यह बच्चों को मेज पर बैठकर खाने का ढंग सिखाता है।


Q15. बच्चों में असमर्थता के क्या कारण होते हैं?

उत्तर ⇒ लगभग प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ शारीरिक, मानसिक या सामाजिक असमर्थता पाया जाती है। उसे समूह का हिस्सा बनने से रोकती है। कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो अधिक गंभीर असमर्थता से ग्रसित होते हैं, ऐसा व्यक्ति हो सकता है व्हील चेयर का उपयोग करते हों या कान में सुनने वाली मशीन पहनते हों या लम्बे समय से अपनी मानसिक विकलांगता का इलाज करा रहे हों, यह सभी स्थितियाँ किसी व्यक्ति की असमर्थता का प्रतीक मानी जाती हैं। बच्चों में असमर्थता के निम्नलिखित कारण हैं

(i) जन्म से पूर्व — गर्भ के समय माँ को किसी पौष्टिक तत्त्व की कमी से शिश की शारीरिक तथा मानसिक असमर्थता हो सकती है। माँ के गर्भ में चोट लगने तथा गर्भ के समय किसी प्रकार की बीमारी या संक्रमण का भी
गर्भस्थ शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(ii) जन्म के समय — जन्म के समय प्रसव में देर होने पर कई बार शिशु के मस्तिष्क को ऑक्सीजन नहीं मिलती है जिससे उसके स्नायुतंत्र तथा मस्तिष्क की कोशिकाओं को चोट पहँचती है और वह मानसिक न्यूनता से
ग्रस्त हो सकता है। कई बार वह शारीरिक रूप से भी अक्षम हो जाता है।
(iii) जन्म के पश्चात्ज — जन्म के बाद शिशु की उचित देखभाल बहुत आवश्यक है। यदि शिशु की देखभाल सही ढंग से नहीं हो तो वह शारीरिक और मानसिक रूप से असमर्थ हो सकता है।
(iv) कुपोषण—शिशु में संतुलित आहार की कमी के कारण भी असमर्थता हो जाता हैं। जब शिशु विकास की अवस्था में होता है तो उसे संतुलित आहार मिलना चाहिए। उदाहरण के लिए कैल्सियम की कमी से हड्डियों का विकास नहीं होता, प्रोटीन की कमी से शारीरिक विकास
और वृद्धि ठीक नहीं होती, विटामिन ‘A’ की कमी से अंधापन होता हैं आदि।
(v) दुर्घटना — किसी दुर्घटना के कारण बालक शारीरिक रूप से अक्षम हो जाता है।
(vi) आनुवंशिकता — आनुवंशिकता के कारण असमर्थता के जीन्स माता-पिता द्वारा प्राप्त होते हैं और जन्म से ही बच्चा अंधा, बहरा या गुंगा होता है।
(vii) संक्रमण रोग — बच्चे को संक्रमण रोग हो जाता है वैसी स्थिति में बच्चा असमर्थ हो .. जाता है। जैसे—पोलियो होने पर वह टाँगों से लाचार हो जाता है।


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Q16. बच्चों की देखरेख की क्या-क्या वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है?

उत्तर ⇒ बच्चों की वृद्धि एवं विकास के लिए उसकी उचित देख-भाल होना आवश्यक होता है। बच्चे की देख-भाल करने का पूर्ण दायित्व उसके माता-पिता पर होता है परंतु आवश्यकता पड़ने पर वे किसी-न-किसी प्रकार के
वैकल्पिक व्यवस्था का चुनाव कर सकते हैं जो निम्नलिखित से प्राप्त की जा सकती है ।

(i) परिवार में भाई-बहन माता-पिता की अनुपस्थिति में बड़े भाई-बहन अपने छोटे भाई-बहन की देख-भाल कर सकते हैं। बड़े भाई-बहन बच्चे के साथ खेल सकते हैं, उसे घुमा सकते हैं, उसे दूध पिला सकते हैं,
कहानी सुना सकते हैं आदि।

(ii) परिवार में दादा-दादी या नाना-नानी संयुक्त परिवार में जहाँ दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ, ताई आदि एक ही घर में एक साथ रहते हैं, वहाँ माता-पिता की अनुपस्थिति में परिवार के अन्य सदस्य बच्चे की देख-रेख कर लेते हैं। परिवार में दादा-दादी तथा अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति बच्चे के व्यक्तित्व पर अनुकूल प्रभाव डालती है। दादा-दादी या नाना-नानी बच्चे को प्यार तथा सुरक्षा प्रदान करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर बच्चे के माता-पिता को भी मार्ग दर्शन प्रदान करते हैं। बच्चों में इससे नैतिक गुणों का विकास होता है।

(iii) पड़ोसी पड़ोसियों के साथ चाहे कितने ही परिवर्तन आये हों फिर भी हमारे यहाँ आने . जाने वाले लोगों से हम घनिष्ठ हो जाते हैं और एक-दूसरे की सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। आवश्यकता पड़ने पर पड़ोसियों के संरक्षण में बच्चे को छोड़ा जा सकता है।

(iv) परिवार में आया अमीर शहरी घरानों में आया व्यापक रूप से पायी जाती है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता और योग्यता परख कर ही आया रखनी चाहिए। अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।

(v) शिशु सदन–वर्तमान समय में शिशु सदन (क्रेच) बच्चों की देखभाल में महत्त्वपूर्ण भमिका निभा रहा है। यह शिशु सदन सरकार, स्वयंसेवी संगठनों तथा व्यवसायिक संगठनों द्वारा चलाये जाते हैं। यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चों को सही देख-भाल में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।


Q17. बच्चों के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले तत्वों के बारे में लिखें।

उत्तर ⇒ बच्चों के सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं

(i) परिवार — परिवार ही बच्चों के सामाजिक मानकों का आदर करता है और आचरण करता है तो आगे चलकर बच्चे के सामाजिक व्यक्ति बनने की संभावनाएँ हैं।
(ii) पास-पड़ोस — 2 वर्ष का बच्चा अपने पास-पड़ोस में जाने लगता है। दूसरे बच्चों के सम्पर्क में आता है। वह सबके साथ मिलकर खेलना सीखता है। अगर आस-पड़ोस में लोग उसे प्यार करते हैं तो वह उनके प्रति स्वस्थ सामाजिक मूल्यों का निर्माण करता है।
(iii) विद्यालय — 3 वर्ष का बच्चा विद्यालय जाने लगता है और सामाजिक मूल्यों को तेजी से सीखता है। स्कूल में शिक्षकों व साथियों के सम्पर्क में आता है। गीत, संगीत, नाटक आदि खेलों में भाग लेता है।
(iv) तीज, त्योहार व परम्पराएँ हर समाज एवं धर्म की अपनी तीज, त्योहार एवं परम्पराएँ होती हैं। उनको मनाने सभी लोग एकत्रित होते हैं। जैसे—रक्षाबंधन, दीपावली, ईद आदि। सभी आपस में मिलते-जुलते मिठाई व बधाई देते हैं। बच्चा देखता है कि एक-दूसरे के बिना त्योहार मनाना संभव ही नहीं है। खुशी के लिए समाज में सभी लोगों का होना आवश्यक है। यही समाजिकता का पाठ हमारी संस्कृति व त्योहार सिखाते हैं। इस प्रकार परिवार, स्कूल, साथी, आस-पड़ोस सभी किसी-न-किसी प्रकार से बच्चे के समाजीकरण में सहायक होते हैं। माता-पिता और शिक्षक दोनों ही अपने अपने स्तर पर बच्चों
का मार्ग-दर्शन करते हैं कि बच्चे को क्या करना चाहिए और क्या नहीं? शेष बच्चा दूसरों का । अनुकरण करके सीख जाता है।


Q18. जन्म से लेकर एक वर्ष तक के बच्चों के शारीरिक विकास का वर्णन करें।

उत्तर ⇒ जन्म से लेकर एक वर्ष तक के बच्चों के शारीरिक विकास निम्नलिखित हैं

(i) भार या वजन शिशु का वजन जन्म के समय लगभग 2/2 से 3 किलोग्राम का होता है। चार माह में दोगुना और एक वर्ष में 8.5 से 9 किलोग्राम हो जाता है।
(ii) आकार एवं लम्बाई नवजात शिशु के जन्म के समय 270 अस्थियाँ होती है जो नर्म एवं स्पंजनुमा होती है। जन्म के समय लम्बाई 45-52 सेमी० एक वर्ष में लम्बाई लगभग 68 सेमी० एक वर्ष में लम्बाई लगभग 68 सेमी० हो जाती है।
(iii) चेहरा एवं सिर-जन्म के समय शिशु का अनुपात उसकी कुल लम्बाई का 22% होता है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है सिर का क्षेत्रफल शरीर के अनुपात में कम हो जाती है।
(iv) हाथ पैर और दाँत जन्म के समय शरीर के अन्य अंगों की तुलना में हाथ पैर छोटे होते हैं। आयु के साथ पैर की लम्बाई बढ़ने लगती है। शिशु के दाँत 6 माह से 1 वर्ष की आयु के बीच मसूढों से बाहर निकलते हैं।
(v) नाड़ी एवं पाचन संस्थान-शिशु में नाड़ी संस्थान का विकास गर्भावस्था से ही प्रारंभ हो जाता है। जन्म के समय शिशु के पेट की क्षमता 25 ग्राम होती है। एक माह के शिश की पेट की क्षमता 80 ग्राम हो जाती है।


Q19. एक नवजात शिशु की देख-रेख आप किस प्रकार करेंगी?

उत्तर ⇒ प्रसवोपरांत नवजात शिशु अत्यंत कोमल एवं मुलायम रहता है। इसलिए इसकी देख-रेख चिकित्सालयों में महिला चिकित्सक, मिडवाइफ, नौं तथा घर में माँ एवं दाइयों द्वारा संपादित की जाती है। जो इस प्रकार हैं

(i) नवजात शिशु का प्रथम स्नान-नवजात शिशु जब जन्म लेता है तो उसके शरीर पर सफेद मोम जैसा चिकना पदार्थ चढ़ा होता है, जो गर्म में उसकी रक्षा करता है। शिशु के शरीर पर जैतुन या नारियल का तेल लगाकर नि:संक्रमित शोषक रूई से पोंछने से मोम जैसा द्रव साफ हो जाता है। फिर हल्के गुनगुने जल और बेबी साबुन द्वारा उसे स्नान कराना चाहिए। उस समय नाभी पर जल नहीं पड़ना चाहिए। स्नान कराने के बाद शिशु को मुलायम तौलिए से पोंछ देना चाहिए।

(ii) अंगों की सफाई

(a) नाक की सफाई जन्म के बाद शिशु की नाक द्वारा श्वसन क्रिया को सुचारू रूप से चलने के लिए नाक की सफाई आवश्यक है। नि:संक्रमित रूई की पतली बत्ती बनाकर तथा उसमें ग्लिसरीन लगाकर नाक के छिद्रों में डालकर धीरे-धीरे घुमाकर साफ करना चाहिए। इससे शिशु को छिंक आती है और नाक के अंदर भरी श्लेष्मा बाहर आ जाती है।
(b) आँखों की सफाई शिशु के आँखों को बोरिक एसिड लोशन में निःसंक्रमित रूई भिंगोकर अच्छी तरह से साफ करना चाहिए। उसके बाद एक प्रतिशत सिल्वर नाइट्रेट लोशन की दो-दो बूंदें आँखों में डालना लाभप्रद होता है। .
(c) कानों की सफाई कान के बाहरी भाग को स्वच्छ एवं निःसंक्रमित रूई में जैतून के तेल लगाकर कानों की सफाई करनी चाहिए।
(d) गले की सफाई नवजात शिशु के गले में एकत्र श्लेष्मा की सफाई के लिए किसी मुलायम कपड़े को उँगली में लपेटकर बोरिक एसिड लोशन में डुबोकर गले के अंदर चारों तरफ धीरे-धीरे घुमाना चाहिए। उपर्युक्त अंगों की सफाई के अतिरिक्त जाँघ, पैर, धड़ तथा गाल आदि को भी मुलायम कपड़े से साफ कर देना चाहिए।

(iii) शिश का वस्त्र-शिशु का वस्त्र मुलायम, स्वच्छ और ढीला होना चाहिए।
(iv) निंदा स्वस्थ शिशु 24 घंटे में 22 घंटे सोता रहता है। केवल भूख लगने पर या मलमूत्र त्यागने पर उठता-जगता है।
(v) शिशु का आहार-माँ का दूध शिशु का सर्वोत्तम आहार होता है। सामान्यतः शिशु को जन्म के 8 घंटे के बाद से माँ का दूध देना चाहिए। उसके पहले शिशु को शहद एवं ग्लूकोज मिलाकर चम्मच या अंगुली से पिलाना
चाहिए। प्रसवोपरांत माँ के स्तनों से पीला एवं गाढ़ा प्रथम दूध निकलता है, जिसे कोलोस्ट्रम कहते हैं। उसे शिशु को अवश्य पिलाना चाहिए। इससे शिशु में विभिन्न रोगों से प्रतिरक्षा प्राप्त होती है।


Q20. बच्चे के शारीरिक विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व क्या हैं?

उत्तर ⇒ B मानव शरीर के विभिन्न अंग प्रत्यंग जैसे हड्डियाँ, माँसपेशियाँ, आंतरिक आदि के बढ़ने और इनकी कार्य करने की क्षमता में लगातार विकास होना ही शारारिक कहलाता है। बच्चों के शारीरिक विकास को बहुत तत्त्व प्रभावित करते हैं, जो इस प्रकार है

(i) वंशानुक्रम — बच्चे की लंबाई, भार, शारीरिक गठन आदि विकास के शीलगुण एवं सीमाएँ माता-पिता और पूर्वजों से प्राप्त होती है।
(ii) पोषण — जन्म से पहले और जन्म के बाद शिशु को जैसा पोषण मिलता है उसी पर उसका शारीरिक विकास निर्भर करता है। पौष्टिक आहार से शिशु का विकास सही हो सकता है।
(iii) टीकाकरण — बालकों का सही टीकाकरण उन्हें कई गंभीर रोगों से बचाता हैं। जिससे वह निरंतर शारीरिक विकास कर पाता है। इसके अभाव में बीमारियों से ग्रस्त होने पर उनका शारीरिक विकास पिछड़ जाता है।
(iv) अन्तःस्त्रावी ग्रंथियाँ — बालक के शारीरिक विकास पर हार्मोन्स का बहुत प्रभाव पड़ता हैं। थाइराइड, पैराथाइराइड के स्राव से शरीर की वृद्धि एवं हड्डियों के विकास पर प्रभाव डालते हैं। पीयूषका ग्रंथि के कम स्राव
करने से बालक बौने हो जाते हैं और अधिक स्राव होने से असामान्य रूप से लंबे हो जाते हैं।
(v) गर्भावस्था — माँ के गर्भधारण के समय का स्वास्थ्य, पोषण, टीकाकरण, मानसिक स्थिति आदि बालक को गर्भ के 9 (नौ) महीने में प्रभावित करता है।
(vi) परिवार — परिवार की आर्थिक और आंतरिक वातावरण बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करता है। जैसे—जो परिवार बच्चे के खेल-कूद को प्रोत्साहित करेगा, अवसर प्रदान करेगा उस परिवार के बच्चे का शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा होगा।


inter Board Exam 2022 Question Answer

 1. Hindi 100 Marks ( हिंदी )
 2. English 100 Marks ( अंग्रेज़ी )
 3. PHYSICS ( भौतिक विज्ञान )
 4. CHEMISTRY ( रसायन विज्ञान )
 5. BIOLOGY ( जीवविज्ञान )
 6. MATHEMATICS ( गणित )
 7. GEOGRAPHY ( भूगोल )
 8. HISTORY ( इतिहास )
 9. ECONOMICS ( अर्थशास्त्र )
 10. HOME SCIENCE ( गृह विज्ञान )
 11. SANSKRIT ( संस्कृत )
 12. SOCIOLOGY ( समाज शास्‍त्र )
 13. POLITICAL SCIENCE ( राजनीति विज्ञान )
 14. PHILOSOPHY ( दर्शन शास्‍त्र )
15. PSYCHOLOGY ( मनोविज्ञान )