बिहार बोर्ड कक्षा 12 इतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर 2024 | Class 12th Class History Model Question Paper 2024 ( PART – 1 )

बिहार बोर्ड कक्षा 12 :- Here History Class 12 Important Long Answer Question Answer ( इतिहास कक्षा 12 का महत्वपूर्ण दीर्घ उत्तरीय प्रश्न 2024 ) is given on this post If you have not read Class 12 History Long Answer Question Answer yet then all these questions are very important for your board exam so this question must watch from beginning to end.

दोस्तों यहां पर बिहार बोर्ड कक्षा 12 के लिए इतिहास का दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर दिया हुआ है यह प्रश्न उत्तर आपके इंटरमीडिएट बोर्ड परीक्षा 2024 के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यही सब प्रश्न आपके इंटर बोर्ड परीक्षा 2024 में आ सकते हैं इसलिए इन सभी प्रश्नों को शुरू से अंत तक जरूर देखें।

इतिहास  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न उत्तर ) PART – 1

 Bihar Board 12th Arts Model Paper 2024 Pdf Download

[ 1 ] हड़प्पा सभ्यता की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति की विवेचना करें।

Ans :- सामाजिक जीवन सिन्धु घाटी सभ्यता से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि सिन्धु सभ्यता के लोगों का सामाजिक जीवन काफी उन्नत था । उनकी सभ्यता नागरिक सध्यता थी और इन्हें आधुनिक जीवन की सुख-सुविधायें प्राप्त थी। इसके साथ ही लोग शिक्षित कला का ज्ञान प्राप्त था। सिन्धु सभ्यता से प्राप्त अवशेषो से मालूम पड़ता है कि समाज चार भागों में बँटा हुआ था-

(i) विद्वान
(ii) योद्धा
(iii) व्यवसायी और
(iv) श्रमिक

समाज की इकाई परिवार थी और परिवार मातृसतात्मक था। ये लोग बड़े शांतिप्रिय थे और युद्धों से घृणा करते थे। सिन्ध सभ्यता के लोगों का भोजन सादा व पौष्टिक था जिनमें गेहूँ और जौ की प्रधानता थी। फल और विभिन्न तरह के सब्जियाँ भी इनके भोजन में शामिल था। ये लोग दूध और दध से बनी सामग्रियों का भी प्रयोग करते थे। इनके भोजन में भेड़, मछली, कछुए व अण्डे भी शामिल थे। पहनावा-ओढ़ावा में सूती एवं ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते थे। स्त्री और पुरुषों में आभूषणों का बड़ा शौक था।

आर्थिक जीवन ⇒ सिन्धु सभ्यता के लोगों के आर्थिक जीवन में कृषि, पशुपालन, व्यापार-व्यवसाय  शामिल था। उस समय सिन्धु प्रदेश काफी उपजाऊ था। उन दिनों सिन्धु नदी को सिन्धु प्रदेश का वरदान समझा जाता था। यहाँ लोग गेहूँ, जौ, राई, मटर आदि की खेती करते थे। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और कालीबंगा में अनाज भंडारण के प्रमाण मिले हैं। पशुपालन सिन्धु सभ्यता के लोगों का कृषि के बाद दूसरा मुख्य पेशा था। बैल, भैंस, बकरियाँ, – भेड़े तथा सुअर पाले जाते थे। सिन्धु सभ्यता के लोगों के पास उन वस्तुओं के कच्चे माल की कमी नहीं थी, जिनका वे निर्माण करते थे। उनकी कोई मुद्रा नहीं थी सम्भवतः उनका व्यापार वस्तुओं के आदान-प्रदान पर आधारित था। व्यापार नौकाओं तथा बैलगाड़ियों द्वारा होता था। हड़प्पा के लोग राजस्थान, अफगानिस्तान तथा ईरान के साथ व्यापार करते थे। मेसोपोटामिया में हड़प्पा की अनेकों मुहरें मिली है। मेसोपोटामिया से प्राप्त लिखित विवरणों से पता चलता है कि उनका मेलुहा के साथ व्यापारिक संबंध था जो सिन्धु प्रदेश का ही एक प्राचीन नाम है।


[ 2 ] सिन्धुघाटी सभ्यता की धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालें।

Ans :- हड़प्पा तथा मोहनजोदडो की खुदाइयों में कुछ मुहरे, लघु मृण्मूर्तियों तथा ताबीज मिले हैं जिनसे सिन्धु सभ्यता के लोगों के धार्मिक विश्वासों के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है । इनका अध्ययन करने के पश्चात् सिन्धु सभ्यता के धार्मिक जीवन की निम्नलिखित विशेषताएं सामने आती हैं:- 

(i) मातृदेवी की उपासना सिन्धु सभ्यता के लोगों में मातृदेवी के रूप में स्त्री शक्ति की पूजा प्रचलित थी।
(ii) शिव की पूजा पुरुष देवताओं में इस देवता की मूर्ति अपना विशिष्ट स्थान रखती थी।
(iii) लिंग तथा योनि की उपासना सिन्ध सभ्यता के लोग मातृदेवी तथा शिव का पूण के अतिरिक्त लिंग तथा योनि की  भी पूजा करते थे।
(iv) आग्न तथा जल पूजा प्रत्येक घर में अग्निशाला व स्नानागार मिला है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि सिन्धु सभ्यता के लोग अग्नि तथा जल की पूजा करते थे।
(v) जादू-टोने में विश्वास ⇒ सिन्धु सभ्यता के लोग जादू-टोने, भूत-प्रेतों में विश्वास करते थे। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि आधुनिक हिन्दु धर्म सिन्धु सभ्यता के लोगों का ऋणी है।


[ 3 ] हड़प्पा सभ्यता के विस्तार की विवेचना करें।

Ans :- सिन्धुघाटी अथवा हंडप्पा की संस्कृति ताम्रपाषाणिक सभ्यताओं से भी पुरानी थी। इसका उदय भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग में हुआ था। चूँकि इस सभ्यता का विकास मुख्यतः सिन्धु नदी के सभी निकटस्थ क्षेत्रों में हुआ था, अतः ह्वीलर आदि विद्वानों ने इसे सिन्धुघाटी सभ्यता का नाम दिया। परंतु आधुनिक विद्वान इस नाम को उचित नहीं ठहराते, क्योंकि इसका विस्तार केवल सिन्धुघाटी (पंजाब, सिन्ध) तक ही सीमित न होकर बलुचिस्तान, गुजरात, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भागों ] को भी घेरे हुए है। यह सभ्यता उत्तर में कश्मीर के मांडा जिले से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में बलुचिस्तान के मकरान तट से लेकर उत्तर-पूर्व में मेरठ तक फैली हुई है। इसका क्षेत्रफल त्रिभुजाकार है और लगभग 1,299600 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, जो निश्चय ही पाकिस्तान अथवा प्राचीन मिस्र या मेसोपोटामिया से बड़ा है।
अब तक इस सभ्यता के लगभग 1000 स्थलों का पता चला है, जिनमें नगरों की संख्या – केवल छः है। इनमें हडप्पा, मोहनजोदड़ो बहुत ही महत्त्वपूर्ण नगर थे। इन दोनों नगरों में 483 किलोमीटर की दूरी थी, और ये सिन्धु नदी द्वारा आपस में जुड़े हुए थे। अन्य नगर चंहुदड़ो, लोथल (गुजरात), कालीबंगा (राजस्थान) और बनवाली है। इस सभ्यता के अवशेष गुजरात राज्य में रंगपुर तथा रोजदी में भी मिले हैं।


[ 4 ] हड़प्पा सभ्यता के नगर योजना के प्रमख विशेषताओं का वर्णन करें अथवा, हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।

Ans :-सिन्धुघाटी की सभ्यता अपनी नगर योजना तथा भवन निर्माण कला के लिए प्रसिद्ध _ थी। सभी बड़े नगर एक सुनिश्चित योजना के आधार पर बने थे। खुदाई में प्राप्त भग्नावशेषों से नगर निर्माण योजना की निम्नलिखित विशेषताएँ सामने आती हैं।
(i) सड़कों का प्रबंध :- आवागमन की सुविधा के लिए सड़कों की समुचित व्यवस्था की गई  थी। संपूर्ण नगर में सड़कों एवं नालियों का जाल-सा बिछा हुआ था। सड़कें पूरब से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। सम्पूर्ण नगर आयताकार खण्डों में विभक्त नजर आती थी।

(ii) नालियों का प्रबंध -: नगर निर्माण की एक अन्य विशेषता गन्दे जल के निकास की सुन्दर  व्यवस्था थी। गन्दे जल की निकासी के लिए सारे नगर में नालियों का जाल-सा बिछा हुआ था। घरों से गन्दा पानी बहकर गली की नालियों में चला जाता था, फिर छोटी नालियाँ बड़ी नालियों में मिलती थीं जो अन्त में विशाल नालों में मिलकर शहर से बाहर चला जाता था।

(iii) भवन तथा सार्वजनिक स्थान -: सिन्धु घाटी सभ्यता के नगरों में छोटे-बड़े सभी प्रकार के घर मिलते हैं। प्रत्येक घर के बीच में एक आंगन, उसके चारों तरफ कमरे, रसोईघर, शौचालय और स्नानगृह पाया गया है। भवन निर्माण में आडम्बर अथवा सजावट की ओर कम उपयोगिता की ओर अधिक ध्यान दिया जाता था।

(iv) सार्वजनिक स्नानागार -: मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थान विशाल स्नानागार था। इस स्नानागार का फर्श पक्की ईंटों का बना था। इसको भरने के लिए पास में एक बड़ा कुआँ था। इस स्नानागार का प्रयोग संभवतः विशेष अवसरों पर सार्वजनिक स्नान के लिए किया जाता था।
उपर्युक्त विवरण से पता चलता है कि सिन्धुघाटी की सभ्यता बड़े नगरों की सभ्यता थी। सुन्दर सड़कों, नालियों एवं गलियों की साफ-सफाई से इस बात का संकेत मिलता है कि यहाँ । कोई नियमित शासन व्यवस्था थी जो अपना काम बड़ी सावधानी से सम्पन्न करता था।


बिहार बोर्ड कक्षा 12 इतिहास का लघु उत्तरीय प्रश्न उत्तर 2024

[ 5 ] चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी एवं उपलब्धियों की विवेचना करें।

Ans :- चन्द्रगुप्त मौर्य, मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और इस वंश का महानत्तम शासक था। चन्द्रगुप्त अपने गुरु चाणक्य की सहायता से नंद वंश का नाश करके मौर्य वंश की स्थापना किया था। उसका शासन व्यवस्था अतिकेन्द्रीकृत किन्तु जन कल्याण पर आधारित था। उसने न सिर्फ परे भारत में साम्राज्य विस्तार किया बल्कि एक सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था की नींव डाली। उसका साम्राज्य विस्तार उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में आधुनिक कर्नाटक तक तथा पर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में काठियावाड़ तक विस्तृत था। उसके द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था परे मौर्यकाल और उसके बाद के शासकों द्वारा अपनाया गया। उसके शासन व्यवस्था का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार हैं

 

(i) सम्राट :- मौर्य शासन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु सम्राट स्वयं चंद्रगुप्त था। शासन अतिकेन्द्रीकृत था परन्तु निरंकुश नहीं था, प्रजा के हीतों को ध्यान में रखकर ही शासन चलाया जाता था।
(ii) मंत्रीपरिषद :- चन्द्रगुप्त को शासन कार्य में सहायता करने के लिए एक मंत्रीपरिषद भी थी। जिन्हें नगद वेतन दिया जाता था। चन्द्रगुप्त सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर मंत्रीपरिषद के सदस्यों से परामर्श करता था।

(iii) पदाधिकारी शासन :- को सूचारु रूप से संचालन के लिए बड़ी संख्या में पदाधिकारियों की नियुक्ति की गई थी। अमात्य नाम के पदाधिकारियों का विशेष महत्त्व था। इसके अतिरिक्त समाहर्ता, सन्निधाता, सेनापति, दूर्गपाल, प्रेदेष्टा इत्यादि महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी थे।
(iv) न्याय व्यवस्था :- न्याय के मामले में चन्द्रगुप्त स्वयं सर्वोच्च अधिकारी था। किसी भी मामले की अंतिम सुनवाई सम्राट के पास ही होता था। न्याय के लिए दो प्रकार के न्यायालय – स्थापित किये गये थे
(i) धर्मस्थीय (ii) कंटक शोधन ।
ग्राम में न्याय का कार्य ग्राम पंचायत करती थी। दंड व्यवस्था कठोर थी। जुर्माने से लेकर प्राणदण्ड का प्रावधान था।

(v) सैन्य व्यवस्था :- चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विशाल सेना का संगठन किया था, जो पाँच भागों में विभक्त थी। पैदल, अश्वारोही, रथ सेना, गजारोही और नौसेना। इसके अलावे गुप्तचर विभाग भी था, जो दुश्मनों की सैन्य गतिविधियों पर पैनी नजर रखता था।

(vi) राजस्व व्यवस्था :- भूमि कर आय का सबसे प्रमुख साधन था, जो कुल उपज का : 1/4 भाग तक वसूल किया जाता था। इसके अतिरिक्त खानों, जंगलों, व्यापार-वाणिज्य से भी राज्य
की आमदनी होती थी।

(vii) प्रान्तीय शासन :- चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य 5 प्रांतों में विभाजित था। यहाँ के शासक राज परिवार के लोग होते थे। प्रांत जिलों में और जिला गाँव में विभाजित था। गाँव का प्रधान ग्रामभोडाक होता था।

(viii) नगर प्रशासन :- चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र के लिए अलग से प्रशासनिक व्यवस्था कायम किया था। नगर प्रशासन का उत्तरदायित्व 30 सदस्यों की एक समिति पर थी।
इस प्रकार चन्द्रगुप्त न सिर्फ विजेता बल्कि एक अद्भुत प्रशासक भी था।


[ 6 ] मगध साम्राज्य के उत्थान के क्या कारण थे?

Ans :- मगध साम्राज्य का उत्थान प्राचीन भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। मगध के उत्थान के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी थे

(i) आथिक स्थिति   मगध के उत्थान में आर्थिक कारणों का महत्त्वपूर्ण यागदान रहा है। प्रकृति ने मगध को मुक्तहस्त से वरदान दिया था यहाँ की भूमि उर्वर था जहाँ धान की खेती अच्छी होती है वहाँ की जनसंख्या अधिक होती है। इस तरह मगध अन्य गणराज्यों पर भारी पडता था । मगध के पास घने जंगल थे जहाँ से इमारती लकड़ा प्राप्त होती थी साथ ही लोहे के खान भी थे जिससे उन्नत किस्म के अस्त्र-शस्त्र बनाये जाते थे। गंगा और उसके उपनदियों के समीप होने के चलते व्यापार-वाणिज्य भी काफी विकसित अवस्था में था । साथ हा जगलों में हाथी मिलती थी। जो उस समय सेना के अग्रिम पंक्ति में होता था।
(ii) भौगोलिक कारण ⇒  मगध की राजधानी गंगा, सोन और गंडक नादया क संगम पर जलदूर्ग के समान बसा था और यह दुश्मनों के आक्रमण से सरक्षित था। मगध की पहली राजधानी राजगृह सात पहाड़ियों से घिरा हुआ था। यह भी दश्मनों के आक्रमण से सुरक्षित था। अतः शत्रुओं के, आक्रमण के भय से निश्चित होकर मगधवासी एवं शासकगण अपनी पूरी क्षमताओं और साधनों को मगध की उन्नति और प्रगति में निरन्तर लगा सके।
(iii) प्रतापी राजाओं का योगदान ⇒  मगध के पास एक से बढ़कर एक महाबली योद्धा थ जस बाम्बसार, अजातशत्र ] महापदमनन्द चन्द्रगप्त आदि। इन महान साम्राज्यवादा शासका न मगध के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। दसरे अन्य गणराज्यों के पास ऐसा नहीं था। इसलिए मगध का उत्थान संभव हो सका।


Bihar Board 12th Model Paper 2024 Pdf Download Arts

[ 7 ] अशोक के धम्म से आप क्या समझते हैं? अशोक के द्वारा धम्म प्रसार हेतु कौन-कौन से उपाय किये गये थे?

Ans :- अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिये कुछ सिद्धान्त बनाये; इन सिद्धान्तों को अशोक का धम्म कहा जाता है। अशोक का धम्म सभी धर्मों का सार संक्षेप था। अशोक के अभिलेख संख्या दो और पांच के अनुसार-कम पाप, बहुत कल्याण, दया और दान ही धम्म है। 

धम्म की विशेषताएँ

(i) सार्वभौमिकता ⇒ अशोक धर्म एक सार्वभौम धर्म था, क्योंकि इसमें उन सभी अच्छे गुणों का समावेश था जो सभी धर्मों में समान रूप से देखने को मिलता है। उसका धर्म विशेष धर्म न था किन्तु नैतिकता के सिद्धान्तों का संग्रह मात्र था।
(ii) अहिंसा ⇒ अहिंसा अशोक के धर्म की एक प्रमुख विशेषता थी। उसके धर्म में न केवल मनुष्यों वरन् पशुओं की हत्या का भी निषेध था।
(iii) सहिष्णुता ⇒ सहिष्णुता अशोक के धम्म की दूसरी प्रमुख विशेषता थी। वह सभी धर्मों का आदर करता था और उसके धर्म में किसी अन्य धर्म से ईर्ष्या अथवा द्वेष रखने की आज्ञा नहीं थी।

धम्म प्रचार :- अशोक अपने धम्म को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए कई उपाय किये

(i) अशोक धम्म के उपदेशों को स्तम्भों पर खुदवाकर साम्राज्य के विभिन्न भागों में स्थापित करवाया।
(ii)धम्म महामात्र नामक विशेष अधिकारी की नियुक्ति किया, जो पूरे साम्राज्य में घूम-घूमकर धम्म प्रचार करते थे।
(iii) अशोक द्वारा अनेकों स्तूप बनवाये गये तथा बौद्ध भिक्षुओं को आर्थिक सहायता दी गई।
(iv) अशोक धम्म प्रचार हेतु विदेशों में दूत मण्डल भेजा।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अशोक विश्व का पहला शासक था, जिसने मानव कल्याण और मानव के नैतिक उत्थान के लिए इतना अधिक प्रयास किया। उनका धम्म सैद्धान्तिक से ज्यादा व्यवहारिक था और उसका उद्देश्य नागरिकों में नैतिकता का विकास करना था।


[ 8 ] मौर्य प्रशासन का वर्णन करें।

Ans :- मौर्य शासकों ने न सिर्फ एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, बल्कि इसे स्थायित्व प्रदान करने के लिए एक सदढ प्रशासनिक व्यवस्था भा कायम किया। मौर्य शासन-व्यवस्था का उद्दश्य राज्य को स्थायित्व प्रदान करना, अधिक से अधिक कर वसूलना एव अपान करना, अधिक से अधिक कर वसूलना एवं लोक-कल्याणकारी काय करना था । मौर्य शासन पद्धति की व्याख्या गंश्रेप में इस प्रकार की जा सकती है।
(i) सम्राट ⇒ मौर्य शासन व्यवस्था का केन्द्र बिन्द सम्राट था । किन्तु वह निरकुश शासक रूप में कार्य नहीं करता था, उसे प्रजा की इच्छा का सदैव ध्यान रखना पड़ता था। विलासो और अयोग्य राजा को प्रजा पदच्युत भी कर सकती थी।
(ii)  मंत्रि परिषद राजा को परामर्श देने के लिए एक मंत्रि-परिषद भी थे। इनकी संख्या 12 से 15 तक होती थी । इन्हें नगद वेतन के रूप में 12000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। राज्य
के महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्यों में परामर्श के लिए सम्राट इनकी बैठक बुलाता था और सामान्यतः राजा इनके परामर्श के अनुरूप ही कार्य करता था।

(iii) पदाधिकारी   शासन को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए बड़ी संख्या में पदाधिकारियों की नियुक्ति की गई थी। समाहर्ता, सन्निधाता, सेनापति, दुर्गपाल, व्यावहारिक, प्रदेष्टा, दौवारिक आदि महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी थे।

(iv) न्याय व्यवस्था ⇒ न्याय के मामलों में राजा सर्वोच्च अधिकारी था। किसी भी मामलों की अन्तिम अपील राजा के पास होती थी। ग्राम में न्याय का कार्य ग्राम पंचायत करती थी। न्याय के लिये दो प्रकार के न्यायालय स्थापित किये गये थे—(i) धर्मस्थीय न्यायालय (ii) कंटक शोधन न्यायालय। दण्ड व्यवस्था कठोर थी; जुर्माने से लेकर प्राण दण्ड तक का विधान था।

(v) सैन्य व्यवस्था ⇒ मौर्यों के पास एक विशालं एवं सुसंगठित सेना थी, जो पांच भागों में विभक्त थी—पदाति, अश्वारोही, रथ सेना, गजरोही और नौ सेना। इसके अतिरिक्त गुप्तचर विभाग भी था, जो दुश्मनों की सैन्य गतिविधियों पर पैनी नजर रखने का काम करती थी।

(vi) राजस्व व्यवस्था ⇒ भूमिकर आय का सबसे प्रमुख साधन था जो कुल उपज का 1/4 से 1/6 भाग तक  वसूल किया जाता था। इसके अतिरिक्त खानों, जंगलों, व्यापार-वाणिज्य से भी राज्य की आमदनी होती थी। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि मौर्य शासकों ने विशाल साम्राज्य की स्थापना के साथ ही प्रशासन का समुचित प्रबन्ध भी किया था।


[ 9 ] क्या गुप्तकाल प्राचीन भारत का “स्वर्णयुग” था?

Ans :- गुप्तकाल सांस्कृतिक विकास के दृष्टिकोण से भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है। इस काल में समाज धर्म, कला, स्थापत्य, शिक्षा, साहित्य एवं दर्शन के क्षेत्र में अभुतपूर्व प्रगति हुई। इसलिए गुप्तकाल को सांस्कृतिक प्रस्फुटन का काल कहा जाता है। सांस्कृतिक विकास की जानकारी तत्कालीन साहित्यिक एवं पुरातात्विक स्रोतों में प्रचुरता में मिलती है, जिनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार हैं- 

(i) सामाजिक व्यवस्था ⇒ गुप्तकालीन समाज वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधृत था। समाज में चार प्रमुख वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र) के अतिरिक्त अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ भी थी। सामान्यत: वर्ण और जाति व्यवस्था के नियम कड़े थे, परन्तु संकट काल में निर्धारित व्यवसाय को छोड़कर दूसरा व्यवसाय अपनाने की भी अनुमति स्मृतिकारों ने दी। इससे समाज में कुछ लचीलापन आया।

(ii) धार्मिक स्थिति ⇒ गुप्तकाल धार्मिक दृष्टिकोण से ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का युग था। इस समय ब्राह्मण धर्म की प्रतिष्ठा स्थापित हुई। मंदिर और मुर्तियों का निर्माण हुआ तथा अवतारवाद की धारणा का उदय हुआ।

(iii) स्थापत्य कला का विकास स्थापत्य कला के क्षेत्र में मंदिरों का निमार्ण सबसे महत्त्वपूर्ण है। गुप्तकाल में मंदिर निर्माण आरंभ हुआ। विभिन्न देवताओं के लिए भव्य मंदिर बनाए गए। इन मंदिरों में तकनीकी एवं निर्माण संबंधी अनेक विशेषताएँ देखी जा सकती है।

(iv) शिल्पकला ⇒ मुर्तिकला का विकास भी गुप्तकाल में हुई। मुर्तिकला भी धर्म से प्रभावित थी। अधिकांश मुर्तियाँ देवी-देवताओं, बुद्ध और तिर्थंकरों की बनी। मथुरा, सारनाथ, पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। इस काल में बुद्ध की अनेक सूंदर मर्तियाँ भी बनी। इनमें प्रसिद्ध है सारनाथ एव मथुरा की बौद्ध प्रतिमा एवं सुल्तानगंज के काँस्य बौद्ध प्रतिमा।

(v) चित्रकला   चित्रकला के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई। रंगों, रेखाओं का प्रयोग, भावों एवं विषयों का चित्रीकरण अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया गया। गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट नमुने अजंता एवं बाघ की गुफाओं से मिले हैं। अजंता की गुफाओं में जहाँ उच्च वर्ग की सपन्नता को दर्शाया गया है। यहाँ बाघ के चित्रों में मानव के लौकिक जीवन की झाँकी मिलती है।

(vi) शिक्षा एवं साहित्य   गुप्तकाल शिक्षा और साहित्य के विकास का युग था। पाटलिपुत्र, वल्लभी, उज्जयनी, काशी और मथुरा इस समय के प्रमुख शैक्षनिक केन्द्र थे। फाह्यान ने पाटलिपुत्र में अनेक वर्षों तक रहकर यहाँ शिक्षा प्राप्त’ की थी। नालंदा महाविहार की स्थापना भी गुप्तकाल में हई जो आगे चलकर विश्वविख्यात शैक्षनिक केन्द्र बना।
गुप्तकाल संस्कृत भाषा एवं साहित्य के विकास का चरमोत्कर्ष का काल था। संस्कृत में ही धार्मिक ग्रन्थों, नाटकों एवं प्रशस्तियों की रचना हई। अनेक पुराणों और स्मृतियों की रचना गप्तकाल में हुई। इस समय के सबसे प्रख्यात कवि कालिदास थे। कालिदास ने अनेक नाटका का रचना की थी। विज्ञान और तकनीकी शाखाओं का विकास भी गुप्तकाल में हुआ। विज्ञान के क्षेत्र में सबसे अधिक प्रगति गणित और ज्योतिष विद्या के क्षेत्र में हुई थी। उपर्युक्त सांस्कृतिक उपलब्धियों के आधार पर ही विद्वानों ने गुप्तकाल को स्वर्ण काल कहा है।


[ 10 ] कनिष्क की जीवनी एवं उपलब्धियों का विवरण दें।

Ans :- मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् भारत पर मध्य एशिया के कई विदेशी जातियों का आक्रमण हुआ। इन आक्रमणकारियों में सबसे अंत में कुषाण आए। कनिष्क इसी वंश का सबसे महान व महत्त्वपूर्ण शासक हुआ। इसने 78 AD से 100 AD तक शासन किया। गद्दी पर बैठने की तिथि से ही शक संवत की शुरुआत मानी जाती है। आज भारतवर्ष में सरकार की वर्ष गणना इसी शक् संवत पर आधारित है।
कनिष्क चन्द्रगुप्त की तरह विजेता था तो अशोक की तरह बौद्ध धर्म का अनुयायी भी था। कनिष्क के काल में ही चतुर्थ बौद्ध संगीति कश्मीर के कुन्डलवन में बुलाई गयी थी। इसी समय बौद्ध धर्म दो भागों “हीनयान और महायान” में विभाजित हुआ था। कनिष्क साहित्य का संरक्षक था। अश्वघोष, वसुमित्र, मातृचेट आदि महान बौद्ध विद्वान उसके दरबार में उपस्थित थे। कनिष्क का शासनकाल कला के दृष्टिकोण से बेमिसाल है। वास्तुकला के क्षेत्र में इस काल में कनिष्क द्वारा स्थापित  कश्मीर के कनिष्कपुर नामक नगर में बना स्तुप एवं पुरुषपुर का विशाल टावर चिर स्मरणीय है। कनिष्क के काल में मिश्रित कला शैली का विकास हुआ। यह कला शैली इण्डोग्रीक, रोमण ग्रीक और गन्धार शैली नाम से जाना जाता है। इस शैली की विशेषता भगवान  बुद्ध की मुर्ति में देखने को मिलती है। कनिष्क के काल में मुर्ति निर्माण की दूसरी शैली मथुरा शैली के नाम से जानी जाती है। – इस तरह हम देखते हैं कि कनिष्क एक विजेता के रूप में, एक धार्मिक नेता के रूप में, , एक कला मर्मज्ञ के रूप में एवं साहित्य संरक्षक के रूप में बेमिसाल है।


[ 11 ] समुद्रगुप्त के विजयों का वर्णन करें।

Ans :- समुद्रगुप्त गुप्त साम्राज्य का एक महान शासक था। इसने लगभग समस्त भारत को पुनः अपने साम्राज्य में शामिल किया था। इसीलिए इसे भारत का नेपोलियन भी कहा जाता है।
समुद्रगुप्त ने सर्वप्रथम उत्तरी भारत आर्यावर्त से अपना विजय अभियान की शुरुआत की। इस दौरान इसने नौ शासकों को पराजित किया। इसमें अच्युत, नागसेन, गणपतिनाग आदि प्रमुख थे। इन विजयों के द्वारा समुद्रगुप्त ने गंगा-दोआब से लेकर मध्यप्रदेश तक के क्षेत्रों को अपने  साम्राज्य में मिला लिया।
आयवित्त या उत्तरी भारत की विजय के पश्चात समुद्रगुप्त ने दक्षिण के 12 राजाओं पर विजय पाई। इसमें कौशल का महेन्द्र, महाकान्तर का व्याघ्रराज, पिष्टपुर का महेन्द्र गिरि, कोटूर का स्वामिदत्त, कांची का विष्णगोप, अत्रमक्त का नीलराज, वेंगी का हस्ति वर्मन, पल्लव का उग्रसेन आदि को पराजित किया। दक्षिण के राज्यों को पराजित करने के बाद समुद्रगुप्त ने इन्हें करद राज्य बना कर पुनः उनके शासकों को वापस कर दिया था।
इसके अलावे समुद्रगुप्त ने पूर्वी तटीय राज्यों पर अभियान किया। इसका मुख्य उद्देश्य था समुद्री सीमा तक पहुँचाना ताकि विदेशी व्यापार सुगमता से हो सके। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मौर्य साम्राज्य के बाद समुद्रगुप्त के काल में लगभग संपूर्ण भारत पर गुप्त साम्राज्य की स्थापना हुई।


Bihar Board class 12 history question paper 2024

[ 12 ] चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के उपलब्धियों का वर्णन करें।

Ans :- चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) गुप्त वंश का महानतम शासक था। इसने साम्राज्य का विस्तार कर विजित क्षेत्रों को गुप्त साम्राज्य में मिलाया। अवंती के शक महाक्षत्रपों, मद्र गणराज्य
से लेकर खरपरिक गणराज्य का विनाश कर दिया गया। इसी कारण इसने शकारि उपाधि धारण  किया।
बंगाल तथा पूर्वी राज्यों पर भी इसने आक्रमण कर गुप्त साम्राज्य में मिलाया। पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण कर गुप्त साम्राज्य की सीमा हिन्दुकुश के क्षेत्र तक कर दिया। चंद्रगुप्त II ने दक्षिण भारत पर पुनः आक्रमण कर नाग, वकाटक तथा कुंतल के क्षेत्र को पुन: जीता। साम्राज्य निर्माता के साथ-साथ चंद्रगुप्त II कुशल कूटनीतिज्ञ भी था। इसने स्वयं नागवंशीय राजकुमारी कुबेर नाग से विवाह किया। वकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह कर गुप्त साम्राज्य को सुरक्षित किया।
चंद्रगुप्त II के दरबार में नौ विद्वान रहते थे। जिन्हें नवरत्न कहा जाता था। कालिदास, अमरसिंह, बररूची, क्षपनक आदि नवरत्न थे।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि चंद्रगुप्त II ने स्वयं को न केवल युद्ध काल में बल्कि शांति काल में महान शासक प्रमाणित किया। इसके शासन काल में ही गुप्त साम्राज्य उन्नति के शिखर पर पहुंचा। इसके महान कार्यों के कारण ही गुप्त काल भारत के इतिहास में स्वर्णयुग कहलाने लगा।


[ 13 ] वैदिक धर्म की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।

Ans :-आर्यों का धर्म बड़ा सरल तथा सुसंस्कृत था। वे प्रकृति तथा इनकी विभिन्न शक्तियों को देवता मानकर  उनकी उपासना करते थे। आर्यों के 33 देवता थे। इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ; हवन तथा वेद मन्त्रों का उच्चारण किया जाता था। संक्षेप में आर्यों के धार्मिक जीवन के देवता इस प्रकार थे

(i) इन्द्र ⇒ इन्द्र आर्यों के सबसे बड़ा देवता थे। इनकी सबसे अधिक पूजा होती थी। इन्हें वर्षा का देवता समझा जाता था। इन्द्र आर्यों के युद्ध देवता भी थे। इनकी सहायता से ही आर्य दस्युओं पर विजय पाये थे।

(ii) वरुण ⇒ वरुण आर्यों के दूसरे बड़े देवता थे। उन्हें संसार के सभी रहस्यों का ज्ञान था। कोई भी पापी इनकी सूक्ष्म दृष्टी से नहीं बच सकता था। अतः आर्य लोग इस देवता से बहुत डरते थे और अपने पापों से बचने के लिए इस देवता से अनुनय-विनय करते थे।
(iii) अग्नि अग्नि घर के रसोई तथा महत्त्वपूर्ण संस्कार के देवता थे। लोगों को विश्वास था कि अग्नि को दी जाने वाली आहुति धुआँ बनकर आकाश में देवता के पास पहुँच जाती है। यज्ञ तथा विवाह के अवसर पर अग्नि को प्रज्वल्लित किया जाता था।

(iv) पूजा विधि ⇒ आर्यों के पूजा विधि अत्यंत सरल एवं सादा था। वे मन्त्रोचार क अपने इष्ट देवी-देवता की पूजा करते थे। यज्ञ की अग्नि में आहति डालते समय वेद मत्रा का वारण होता था। विशेष अवसरों पर वे बलि भी देते थे।

(V) कर्मकांड उत्तर वैदिक काल में देवताओं के पूजा के मुख्य उद्देश्य भौतिक हा थ परन्तु पजा पद्धति में बड़ा बदलाव हो गया था। ब्राहाणों ने कर्मकांडों का इतना जाल बिछा दिया था कि गृहस्थ उन्हें निभा नहीं सकता था। अब यज्ञ केवल पुरोहितों की सहायता से ही हो सकता । अतः उत्तर वैदिककाल में धर्म पुरोहितों से घिरा हुआ था।


[ 14 ] महाभारत द्वारा हमें उस समय के सामाजिक इतिहास के बारे में क्या जानकारी मिलती है?

Ans :- महाभारत हमें भारत के उस समय के सामाजिक इतिहास के बारे में बहुत जानकारी देता है। इसमें प्राचीन प्रथाओं जैसे कि गौ-हत्या तथा नरबलि तथा कुछ अनार्यों की परम्पराओं
जैसे कि पांडुओं के बहु पति प्रथा का वर्णन है। परंतु लगभग 200 ई० में जब इस काव्य को पुनः  लिखा गया तो इससे पता चलता है कि अहिंसा अथवा किसी भी जीव को न मारने के सिद्धांत को बहुत महत्त्व दिया गया।
महाभारत के काल में जाति प्रथा में बहुत कठोरता आ रही थी। शुद्रों को बहुत घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। ब्राह्मणों का समाज में सर्वश्रेष्ठ स्थान था और उनको देवताओं के समान समझा जाता था। देश की सत्ता क्षत्रियों के हाथों में थी तथा वैश्यों का कोई महत्त्व नहीं था। राजा या सम्राट किसी ब्राह्मण को ही अपना मंत्री नियुक्त करता था जो कि उसका धार्मिक पथ । प्रदर्शक भी होता था। जाति ] भेद-भाव बहुत बढ़ गये थे तथा एक जाति को छोड़कर दूसरी जाति में प्रवेश पाना बहुत कठिन हो गया था। ऊँची जाति के लोग नीची जाति वालों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लेते थे, परंतु शुद्रों से लोग घृणा करते थे।
इसकाल में स्त्रियों की दशा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। उनको माता और पत्नी के रूप में बहुत सम्मान दिया जाता था। धार्मिक रीतियों में भी स्त्रियों को पुरुषों के बराबर स्थान दिया जाता था। राजवंशों और धनाढ्य लोगों में बहु-पत्नी विवाह की प्रथा प्रचलित थी। सती प्रथा भी प्रचलित थी। महाकाव्य काल में कुछ स्त्रियों ने शिक्षा और दर्शन के क्षेत्र में बड़ा ऊँचा स्थान प्राप्त था।
महाकाव्य काल में लोगों के धार्मिक विचारों में भी बहुत परिवर्तन देखे गये। धर्म बहुत जटिल और आडम्बरमय बन गया। महाकाव्य काल में लोगों का कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास ] था तथा वनों में जाकर उपवास करके तपस्या करना भी प्रचलित था।


[ 15 ] महावीर स्वामी की जीवनी एवं उनके उपदेशों पर प्रकाश डालें।

Ans :- महावीर स्वामी को जैनधर्म का संस्थापक माना जाता है। इनका जन्म 540 ई०पू० में वैशाली के कुण्डग्राम में हुआ था। इनके पिता सिद्धार्थ क्षत्रिय कुल के प्रतिष्ठित सामन्त थे और माता त्रिशला वैशाली के लिच्छवि राजा चेटक की बहन थी। युवावस्था प्राप्त होने पर उनका विवाह यशोदा नामक सुंदर राजकुमारी से कर दिया गया। कुछ वर्षों तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के बाद 30 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर संन्यासी हो गये। निरन्तर 13 वर्षों तक तपस्या के बाद जृम्भिका गाँव के समीप ऋजुपालिका नदी के उत्तरी तट पर शाल वृक्ष के नीचे महावीर स्वामी को ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद 30 वर्षों तक धर्म प्रचार करते रहे और 72 वर्ष की अवस्था में 468 ई०पू० में राजगीर के निकट पावापुरी में उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।
शिक्षायें एवं सिद्धांत जैन धर्म की शिक्षायें बड़ी सरल तथा सादा है। यह कर्म, उच्च आदर्शों तथा आवागमन के सिद्धांतों पर आधारित है। इनमें अहिंसा, मोक्ष, तपस्या, त्रिरत्न पर विशेष बल दिया है। संक्षेप में इसके मुख्य सिद्धांत निम्नलिखित हैं

(A) त्रिरत्न ⇒ जैन धर्म में मनुष्य को तीन रत्नों के पालन पर जोर दिया गया है—

(i) सम्यक विश्वास,
(ii) सम्यक ज्ञान,
(iii) सम्यक आचरण। मनुष्य को संचित कर्मों से छुटकारा पाने के लिए इन्हें तीन रत्नों का पालन करना चाहिए।

(B) पांच महावत ⇒ महावीर स्वामी ने गृहस्थों के जीवन को पवित्र बनाने के लिए पांच महाव्रत बताये हैं—

(i) सत्य,
(ii) अहिंसा,
(iii) असत्येय,
(iv) अपरिग्रह एवं
(v) ब्रह्मचर्य 

(C) कर्म तथा पुनर्जन्म सिद्धांत ⇒ जैन धर्म में कर्म तथा पुनर्जन्म सिद्धांत का बड़ा महत्त्व है। मनुष्य पूर्व जन्म के संचित कर्मों के अनुसार संसार में जन्म लेता है और एक के बाद दूसरे योनी में प्रवेश करता है। यह जन्म-मरण का चक्कर तब तक चलता रहता है जब तक सत्कर्म करके वह मोक्ष का अधिकारी नहीं बनता। अतः मनुष्य को सत्कर्म करके मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।


class 12 history long question paper 2024 

[ 16 ] बौद्ध धर्म के पतन के कारणों का उल्लेख करें।

Ans :- छठी शताब्दी ई०पू० से लेकर गुप्तकाल तक उन्नतिशील बौद्ध धर्म में गुप्तकाल के पश्चात पतन के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे जिसके कारण अंग्रलिखित हैं

(i) बौद्ध धर्म का परिवर्तितस्वरूप कालांतर में बौद्ध धर्म में कई  जटिलताएँ आ गई। बौद्धों ने कुछ हिंदू देवी-देवताओं को भी अपने धर्म में स्थान देना प्रारंभ कर दिया। वज्रयान संप्रदाय ने टोने-टोटके को बढ़ावा दिया। इस प्रकार मूल स्वरूप में आये परिवर्तनों ने इसके पतन को बढ़ावा दिया।

(ii) संघ में भ्रष्टाचार पनपना ⇒ कालांतर में बौद्ध विहार भ्रष्टाचार के केंद्र बन गये। बौद्ध लोग भोग-विलास में लिप्त हो गये। मठों में धन संग्रह होने लगा। मठों में बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के प्रणय से जनसाधारण का बौद्ध भिक्षुओं से विश्वास उठ गया।

(iii) हिंदू धर्म में सुधार बौद्ध एवं जैन धर्म की उन्नति को देख हिंदू धर्म ने भी अनेक आंतरिक सुधार किये। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट तथा रामानुज आदि कुछ ऐसे हिंदू दार्शनिक हुए जिन्होंने हिंदू धर्म के दोषों को दूर किया। अतः इन्हीं के सतत् प्रयासों से एक बार पुनः आम आदमी बौद्ध धर्म की जटिलता से त्रस्त हो हिंदू धर्म की ओर आकृष्ट हुआ।

(iv) विभाजन ⇒ गौतम बुद्ध के पश्चात बौद्ध धर्म में निरंतर विभाजन होते गये। महासांघिक, थेरवाद, हीनयान, महायान, वज्रयान आदि संप्रदायों की स्थापना से बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांत लगभग भुला ही दिये गये।

(v) राजकीय संरक्षण का अंत भारत में पालवंश के अंत के साथ ही बौद्ध धर्म से राजकीय संरक्षण समाप्त हो गया। बौद्ध के अहिंसावादी सिद्धांत के कारण राजपूत राजाओं ने हिंदू धर्म को संरक्षण दिया।

(vi) विदेशी आक्रमण ⇒ बौद्ध विहारों में किया गया संपत्ति संग्रह ही अन्ततः उनके पतन का कारण बना। हूण आक्रमण ने बौद्ध धर्म को पतन की ओर अग्रसर किया। मुसलमानों का आक्रमण भी इनके पतन का कारण बना। सीधा-सा कारण यह था कि बौद्ध मठ धन के गढ़ समझे जाते थे और प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी मठों पर आक्रमण कर धन प्राप्त करना चाहता था। उपर्युक्त सभी कारणों द्वारा चारों ओर से प्रहार होने के कारणं बौद्ध धर्म अपने अस्तित्व को बनाये नहीं रख सका। अन्ततोगत्वा 13 वीं शताब्दी में विक्रमशीला और नालंदा के ध्वंश के ” ही भारत से बौद्ध धर्म का लोप हो गया।


[ 17 ] ‘बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म की संक्षिप्त तुलना करें।

Ans :- बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म दोनों ब्राह्मण धर्म के कठोरता, पाखंड, कर्मकांडों के अतिशय ] प्रयोग के आधार पर फला-फूला था। दोनों धर्मों में कुछ समानताएँ एवं विषमताएँ भी थी।

समानताएँ

(i) दोनों धर्म वेदों को प्रमाणिक ग्रंथ नहीं मानते थे।
(ii) दोनों धर्म वैदिक ब्राह्मण धर्म के यज्ञवाद, बलीप्रथा, बहुदेववाद और जातिवाद का विरोध करते थे।
(iii) दोनों निवृत्रिमार्गी यानी संसार त्याग पर जोर देते थे।
(iv) दोनों में कर्मवाद एवं पुनर्जन्म पर जोर दिया गया।
(v) दोनों धर्मों में अहिंसा एवं मानववाद पर जोर देते थे।
(vi) दोनों के अनुयायियों ने इन्हें पूजना शुरू कर दिया।
(vii) दोनों संस्कृत की जगह जनभाषा में धर्म का प्रचार-प्रसार किया।

विषमताएँ

(i) जैन साहित्य के अनुसार जैन धर्म बौद्ध धर्म से अधिक प्राचीन था।
(ii) जैन धर्म बौद्ध धर्म की तुलना में अहिंसा पर अधिक बल दिया।
(iii) जैन धर्म में काया-कलेश पर बल दिया गया था।
(iv) जैन धर्म के दिगम्बर संप्रदाय वस्त्र विहीन रहते थे जबकि बौद्ध वस्त्र धारण करतें थे।
(v) जैन के अन्तार मोक्ष मृत्यु के बाद संभव है जबकि बौद्ध के अनुसार वह इस जीवन में ही मिल सकता है।
(vi) जैन धर्म पश्चिमोत्तर भारत तक ही सीमित रहा जबकि बौद्ध धर्म का विदेशों में भी प्रचार हुआ।
(vii) बौद्ध पाली भाषा जबकि जैन प्राकृत भाषा का प्रयोग प्रचार प्रसार के लिए किया।


[ 18 ] सांची के स्तूप की खोज एवं उससे संबंधित प्रमुख तथ्यों का वर्णन कीजिए।

Ans :-  जनरल टेलर ने 1818 ई० में सांची के स्तूपों की खोज की। 1822 ई० में भोपाल के असिस्टेंट पॉलिटिकलं ऐजेंट कैप्टन जानसन ने प्रमुख स्तूप के एक के ऊपर से नीचे तक की खुदायी की। 1851 में अलेक्जेंडर कनिंघम एवं कैप्टन मैसी ने भी यहाँ खुदायी करायी और यहाँ प्राप्त अभिलेखों का अध्ययन किया। इसके बाद 1912 में सर जॉन मार्शल ने यहाँ खुदाई कराई। सांची में प्राप्त अवशेषों तथा अभिलेखों से निम्नलिखित तथ्य सामने आये। सांची में एक विशाल तथा दो छोटे स्तूप हैं। विशाल स्तूप में भगवान बुद्ध तथा दूसरे में अशोककालीन धर्म प्रचारकों के तथा तृतीय में बुद्ध के दो शिष्यों सारिपुत्र एवं महामोद्ग्ल्यायन के अवशेष रखे हुये हैं। सांची के स्तूप का वर्णन श्रीलंका की बौद्ध पुस्तकों दीपवंश एवं महावंश में मिलता है। इनके अनुसार उज्जयिनी का शासक रहते हुये अशोक ने विदिशा के एक व्यापारी की कन्या देवी से विवाह किया। इसी रानी ने पहाड़ी के ऊपर बुद्ध धर्म के स्मारक बनवाये। सांची स्तूप पर खुदे हुये शिलालेख में बड़े-बड़े अमीर एवं व्यापारियों द्वारा दिये गये दान का वर्णन मिलता है। इसी दान से सांची स्तूप निर्मित हुये। महास्तूप का निर्माण अशोक के समय ईंटों की सहायता से हुआ था एवं इसके चारों ओर काष्ट की वेदिका बनी थी।


Bihar Board Inter Exam 2024 Question Answer

S.N PART – A   ( पुरातत्व एवं प्राचीन भारत )
1. प्रारंभिक नगरों की कहानी हड़प्पा सभ्यता का पुरातत्व
2. मौर्य काल से गुप्त काल तक का राजनीति एवं आर्थिक इतिहास
3. सामाजिक इतिहास : भारत के विशेष संदर्भ में
4. बौद्ध धर्म एवं साँची स्तूप के विशेष संदर्भ में प्राचीन भारतीय धर्मो का इतिहास
S.N PART – B  ( मध्यकालीन भारत )
5. आईन – ए – अकबरी : कृषि संबंध
6. मुगल दरबार : इतिवृत द्वारा इतिहास का पूर्ण निर्माण
7. नूतन स्थापत्य कला – हम्पी
8. धार्मिक इतिहास : भक्ति सूफी परंपरा
9. विदेशी यात्रियों के विवरणों के अनुसार मध्यकालीन समाज
S.N PART – C ( आधुनिक भारत )
10. उपनिवेशवाद एवं ग्रामीण समाज
11. 1857 के आंदोलन का प्रतिनिधित्व
12. नगरीकरण नगर योजना तथा स्थापत्य
13. महात्मा गांधी समकालीन दृष्टि से
14. भारत का विभाजन एवं अलिखित स्रोतों से अध्ययन
15. भारतीय संविधान का निर्माण